19 साल उत्तराखंड ने दूसरे राज्यों की अंग्रेजी शराब बेची, तो अब क्यों न पहाड़ी अनाजों की दवा दारू एक्सपोर्ट करें?

डाॅ. हरीश मैखुरी

        उत्तराखंड राज्य स्थापना के 19 साल पूरे हुए, इस मध्य उत्तराखंड राज्य में बारी बारी से कांग्रेस और बीजेपी की सरकारें आई। राज्य आन्दोलन की मुखिया रही उत्तराखंड क्रांतिदल के भी इका- दुका विधायक समय-समय पर सरकारों में शामिल होते रहे, लेकिन राज्य की जनता ने जिन मुद्दों के लिए पृथक राज्य की लड़ाई लड़ी वे समस्याएं आज भी जस की तस हैं, बल्कि कुछ समस्याएं तो ज्यादा विकराल हुई हैं। राज्य के पर्वतीय जनपद न केवल पूरी तरह उपेक्षित हुए बल्कि उसके अपने लोग भी खो गए, पलायन की विकराल समस्या ने पहाड़ों को नंगा कर दिया है। आज भी चमोली पिथौरागढ़ उत्तरकाशी चंपावत बागेश्वर रुद्रप्रयाग पौड़ी और टिहरी जनपदों में जीवन जीने हेतु मूलभूत समस्याओं का अभाव ज्यों का त्यों बना हुआ है। यहां पर अच्छे स्कूल/ गुरुकुल, एलोपैथिक अस्पताल/ आयुर्वेदिक अस्पताल दुर्लभ ही हैं। 60% गांवों में अभी मोटर सड़क नहीं पहुंची, कुछ गांवों में मोटर सड़क तब पहुंची जब सड़कों के अभाव में गांव खाली हो चुके थे।           

       कुछ  दशक पहले से गांवों में सस्ता खाद्यान्न देने की योजनाएं शुरू हुई उसकी वजह से लोगों ने परंपरागत फसलों को उगाना बंद कर दिया। हमारा गहथ कुलथी कोंणी झंगोरा भट्ट सोंटा रैंस व मास की दाल, चींणा भंगणां जैसी आरोग्य प्रदान करने वाले कुछ अनाजों को लोग अब उगाने बनाने खाने का तरीका और स्वाद भी भूल गये। बकरी पालन, बदरी गाय जैसी छोटी पहाड़ी गायों को पालना उनका संरक्षण उनके गोबर से उत्पादित फसलों के द्वारा स्वास्थ्य रक्षण कार्यक्रम का तो उत्तराखण्डियों की सरकारों को ध्यान और भान भी नहीं रहा, इसीलिए पहाड़ के जो लोग  100 वर्षों तक निरोग रहते थे वह स्वास्थ्य चेन जींन परंपरा अब खत्म हो गई है। अब पहाड़ों में भी लोग बीपी शुगर थायराइड हृदय कैंसर रोग जैसी महंगी और जीवन भर चलने वाली बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।               प्राकृतिक आपदा आग ? बाघ, सूखा, पानी ? की समस्या, सिर पीठ पर बोझा ढोना दुकानदारों की उधारी की समस्या बनी हुई है, और मुंडारा भी हो तो डॉक्टर के लिए 10-20 किमी पैदल ? जाना ही पड़ता है। गांवों के वैद्य और जानकार बक्ये, पुछ्यारे भी मर खप गये। जो कि अपनी तरह की परफैक्ट हेल्थ पैथी थी, लेकिन उसकी जगह बाखरे मारने वाले शरारती और शराबी तत्वों का कब्जा हो गया, इसमें लोकल लीडरशिप भी गाहे-बगाहे जुड़ी रहती है।
उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि वह परंपरागत खेती और पशुपालन के संरक्षण को बढ़ावा दे फलोद्यान को बढ़ावा दें पहाड़ों में मत्स्य पालन कुकुट पालन मशरूम उत्पादन को बढ़ाने के उपाय करें, प्रत्येक गांव के प्रत्येक मकान को मोटर सड़क से जोड़ने की योजना पर काम करें। इससे पलायन कर चुके लोग भी गाहे-बगाहे पहाड़ों की तरफ आते रहेंगे।
गांवों में बंजर पड़ चुके विद्यालयों को विद्या भारती सरस्वती विद्या मंदिरों या गुरुकुलों को दें, दुर्गम जनपदों में कुछ अच्छे हिंदी अंग्रेजी संस्कृत माध्यम प्राइवेट निजी विद्यालयों की स्थापना के लिए सरकार निजी इन्वेस्टरों से संपर्क करें, जिससे इन पहाड़ी क्षेत्रों में पहाड़ी शांत वादियों में ऐसे आवासीय विद्यालय स्थापित हों जो विश्वस्तरीय हो और इनमें 30% कोटा उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों के मूल निवासी बच्चों के लिए आरक्षित हो, इससे पूरी तरह पलायन कर चुके लोग भी पहाड़ों की तरफ वापस आ सकते हैं, क्योंकि लोगों ने मुख्य रूप से पलायन बच्चों की अच्छी शिक्षा दीक्षा के लिए ही किया और बाद में वे मैदान की आपाधापी में उलझ कर खो गये और पहाड़ लौटना ही भूल गए।  यही कारण है कि पहाड़ के करीब 2 हजार गांवों पर पूरी तरह से ताले लग गए, जबकि 50 लाख लोगों ने स्थाई रूप से पलायन कर लिया है।
    राज्य में अब तक की सरकारों में नारायण दत्त तिवारी सरकार ने मैदानी क्षेत्रों में औद्योगिक विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बहुत काम किए, पर पर्वतीय जनपदों की सुध नहीं ली, बहुगुणा व हरीश रावत सरकार ने पलायन रोकने और गैरसैंण में राजधानी बनाने की दिशा में कुछ काम किए। खंडूरी सरकार ने भ्रष्टाचार को कम करने के लिए कुछ काम किए। लेकिन बाकी मुख्यमंत्रियों की सरकारों ने कुछ भी परफारमेंस नहीं दी। जीरो टॉलरेंस वाली वर्तमान सरकार की भी अभी तो परफॉर्मेंस भी जीरो ही दिख रही  इसके लिए या तो ओम प्रकाश और सलाहकार बदलो या…फिर गिरमिंड
     कुछ अति आवश्यक और तात्कालिक सुझाव- पहाड़ों में जिन किसान परिवारों के पास एक बदरी गाय हो और वे खेती-बाड़ी भी करते हैं उन्हें ₹3000 महीना, जिसके पास दो बद्री गाय हो  उसको ₹5000 महीना और जिसके पास  10 बद्री गाय हो उसे ₹10000 महीना पेंशन दी जाए।
       लंगूर बंदर भालू और बाघों से पहाड़ की फसलों और लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाय। पर्वतीय गांव में यहां की फसलों मंडुवा कोणीं झंगोरा, भट्ट सोंटा, सेब ? नाशपाती ? काफल, आदि फलोत्पादन आदि पर आधारित लघु उद्यमियों को बिना ब्याज के ऋण सुविधा उपलब्ध कराई जाए ताकि वे जूस बिस्किट  मशरूम  मत्स्य पालन  बकरी पालन  जैसे व्यवसाय कर सकें। पहाड़ों में कंप्यूटर और  मोबाइल चिप आदि बनाने का काम भी किया जा सकता है।
       पिछले 19 सालों में  उत्तराखंड ने दूसरे राज्यों में बनी हुई अंग्रेजी शराब ही बेची, इस संदर्भ में एक तरह से उत्तराखंड सरकारें शराब सौदागर की भूमिका में दिखती हैं। वैसे तो शराब आत्मा और शरीर दोनों का नाश करती हैं और देवभूमि के लोगों के लिए किसी भी तरह शराब पीना पिलाना बेचना ठीक नहीं है। लेकिन यदि सरकारें शराब लाबी की जकड़ में फंसकर उसके राजस्व की आक्सीजन से ही जीवित हैं, तो क्यों ना पहाड़ी अनाजों की एक्सपोर्ट क्वालिटी शराब बनाकर विदेशों के लिए एक्सपोर्ट करने की परियोजना पर भी काम किया जा सकता है? मेरा दावा है हमारे पहाड़ी अनाजों की बनी हुई शराब यूरोपियन देशों की वोदका से कई गुना अधिक अच्छी व महंगी बिकेगी ही, साथ ही यह नये तरह की औषधीय (मेडिशनल) गुणकारी दवादारू भी होगी।
     धार्मिक पर्यटन  उत्तराखंड की आय का सबसे बड़ा स्रोत हो सकता है। यहां चार धाम के अलावा  सुंदर प्राकृतिक डेस्टिनेशन  जागेश्वर बागेश्वर पाताल भैरवी नंदा देवी तीर्थ जैसे अनेक तीर्थ व दर्शनीय स्थल हैं लेकिन इसके लिए भी जो इंफ्रास्ट्रक्चर चाहिए वह इन 19 सालों में विकसित नहीं हो पाया। उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज इस दिशा में किंचित अपने स्तर से प्रयासरत दिखते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि केन्द्र पोषित चार धाम ऑल वेदर रोड़ और ऋषिकेश कर्णप्रयाग बद्रीनाथ रेल परियोजना  तथा काठगोदाम गैरसैंण कर्णप्रयाग रेल परियोजना का काम पहाड़ के लिए वरदान से कम नहीं, इन परियोजनाओं के कामों में ज्यादा तेजी लाई जाए। होम स्टे योजना को और सरल व वृहद करें ताकि इसे विस्तार दिया जा सके।
      गैरसैंण में स्थाई राजधानी बनाने की दिशा में  तेजी से काम किया जाए, जब तक गैरसैंण स्थाई राजधानी पूरी तरह से स्थापित नहीं हो जाती तब तक गैरसैंण क्षेत्र को सभी जनपदों से जोड़ने के लिए चौड़ी सड़कें बनाने और प्रत्येक गाँव को मोटर सड़क से जोड़ने का काम युद्ध स्तर पर किया जाए। देहरादून व हल्द्वानी से प्रत्येक जिला मुख्यालय के लिए निजी कंपनियों के माध्यम से  हेलीकॉप्टर की  व्यवस्था  प्रत्येक दिन प्रत्येक सीजन में सुनिश्चित की जाए।
    उत्तराखंड जहां चीन के सीमावर्ती इलाकों से जुड़ा हुआ है, वहीं देवभूमि उत्तराखंड के नक्सली और इस्लामिक चरमपंथियों के निशाने पर आने का खतरा है, पिछले 19 सालों में उत्तराखंड में 3 दर्जन से ज्यादा नई मस्जिदें उग आईं, जबकि 100 से अधिक मंदिरों में दिया जलाने वाला भी नहीं बचा।