सौ साल पहले गढ़केशरी के नेतृत्व में ककोड़ा खाल बर्दायस आन्दोलन ने हिला दी थी ब्रितानियों की चूलें

 सौ साल पहले गढ़केशरी के नेतृत्व में ककोड़ा खाल बर्दायस आन्दोलन ने उखाड़ दी थी ब्रितानियों की जड़ें

हरीश मैखुरी 

आपने कहावत सुनी होगी ‘ये कार्य मेरे बर्दाश्त के बाहर है’ बर्दायस शब्द वही है। दूसरी कहावत सुनी होगी अजी हम तो बेगार कर रहे हैं। इसका तात्पर्य है विवशता के चलते बिना पैसों के उपरी आदेश पर काम करना। आपने कहावत सुनी होगी ‘पटवारी से बड़ा उसका चाकर’। शासकीय कार्यों में घूस रिश्वत और आजकल सुविधा शुल्क का राज इस वाक्य में छुपा है। आपने एक और कहावत और सुनी होगी ‘कहां रह गया नीति कहां रह गया माणा श्याम सिंह पटवारी ने कहां-कहां जाणा’ उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों की परिस्थितियों की पीड़ा इस कहावत में छिपी है।

     उत्तराखंड में अंग्रेजी राज से पहले के दौर में केदारखंड और मानसखंड के राजवाड़े बड़े भड़ पराक्रमी होने के उपरांत भी म्लेच्छ और गोर्खा दुश्मनों की डर के कारण न तो ठीकठाक मार्ग बनवाते थे ना नदियों में पक्का पुल लगाते थे। नदियों को आर पार करने के लिए केवल रस्सियों से बने झूला पुल लगते थे ताकि दुश्मन के आने का समाचार मिलते ही इन राशियों को काटा जा सके। १८०४ – १८०५ की ‘गोर्ख्याणी’ यानी गोर्खाओं के अत्याचारों से त्रस्त होकर यहां के राजाओं को उनसे मुक्ति पाने के लिए अंग्रेजी सरकार की सहायता लेनी पड़ी। कुमाऊं में भी नेपाल की सीमा रेखा को स्थापित करने के लिए राजा ने अंग्रेजों की सहायता ली तब दो वर्षों तक चले एंग्लो-नेपाली युद्ध के बाद गोर्खाओं के साथ सिगौली नामक स्थान में संधि हुई, इस पर 2 दिसंबर 1815 को हस्ताक्षर किए गए थे और 4 मार्च 1816 को ईस्ट इंडिया कंपनी और राज गुरु गजराज मिश्रा के बीच नेपाल के चंद्र शेखर उपाध्याय के साथ हस्ताक्षर किए गए जिसे सिगौली संधि कहा जाता है। सिंगोली संधि के बाद कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों अंग्रेज़ी व्यवस्था के अधीन आ गये। उस काल में अंग्रेज़ लोग गोर्खाओं से अपेक्षाकृत कम अत्याचारी थे। गोर्खा राज और अंग्रेज़ी शासन में मुख्य अंतर यह था कि गोर्खा स्वयं त्याचार करते थे लेकिन अंग्रेज अपनी व्यवस्था चलाने के लिए पदान थोकदार मालगुजार आदि के रूप में हमारे लोगों का ही उपयोग करते थे। उस काल में गढ़वाल मंडल में ब्रिटिश गढ़वाल और टिहरी राज्य दो शाशन प्रणाली थी। वर्तमान टिहरी और उत्तरकाशी जिले टिहरी नरेश के अन्तर्गत थे। राजा अंग्रेजी शासन से जुड़े थे इसलिए ब्रिटिश गढ़वाल की व्यवस्था टिहरी राज्य से अलग दिखती है। टिहरी में पदान मालगुजार जमींदार और थोकदार नहीं होते जबकि अपर गढ़वाल और लोअर गढ़वाल में यह व्यवस्था अंग्रेज़ों द्वारा अपने संसाधन जुटाने के लिए बनायी गयी थी।

       आज हम जिस बर्दैस की बात कर रहे हैं वह है अंग्रेजी शासनकाल में ब्रिटिश गढ़वाल क्षेत्र में अंग्रेज अधिकारियों के आवागमन को सुगम बनाने के लिए यहां के मूल निवासियों द्वारा अनिवार्य रूप से की जाने वाली बेगारी, किस्त भुगतान और दूध दही मक्खन घी शहद अनाज तेल मशाले राश आदि की प्रतिपूर्ति। तब आज की तरह मोटर सड़कों का सर्वथा अभाव था इसलिए अंग्रेज अधिकारीयों उसके परिवार और सहयोगी अमले के शौच का कमोड उसका बिस्तर ढोना उसके लिए बर्तन और उनकी पालकी या घोड़े की व्यवस्था करना उसके लिए पगडंडी यानी रास्ता बनाना ये सब बर्दायस के अन्तर्गत अनिवार्य था और बेगारी में करना था। आज का चमोली रूद्रप्रयाग और पौड़ी जिला ब्रिटिश शासन के अधीन था। ब्रिटिश सरकार के कर्ता धर्ता गढ़वाल कमीश्नर उसके नीचे डिप्टी कमिश्नर फिर तहसीलदार फिर कानून गो फिर पट्टी के पटवारी फिर कुछ गांवों पर पदान (पांच सात गांवों पर ) थोकदार (किसी थोक तोक पर) मालगुजार (उगाही करनेे वाला) फिर जिमदार खेती करने वाला होता था। जिमदार केवल खेती कर सकते थे लेकिन खेती उनके नाम पर होती नहीं थी। कुली बेगार और बर्दायस प्रथा अंग्रेजी शासन द्वारा हमारे बीच के लोगों के माध्यम से स्थापित वह व्यवस्था थी जिसका पालन जन सामान्य के लिए अनिवार्य था।
  12 जनवरी 1921  को ब्रिटिश गढ़वाल के डिप्टी कमिश्नर पेशन अपने परिवार जनों और सरकारी कर्मचारियों के साथ ककोड़ाखाल पंहुचना था। देश के विभिन्न स्थानों पर अंग्रेजी राज के विरूद्ध कुछ न कुछ आन्दोलन चलते रहते थे। हाथ में तिरंगा और सिर पर सफेद टोपी, जय हिंद और वंदेमातरम का नारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रतीक बन चुकी थी ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊँ में भी इसकी सुगबुगाहट थी। पी मेशन के वैसाखी मेले में कर्णप्रयाग आने और १२ जनवरी को ककोड़ाखाल में कैम्प की सूचना ज्यों ही नन्दप्रयाग  के अनुसूया प्रसाद बहुगुणा जी को लगी तो उन्होंने ककोड़ाखाल में ही कमीश्नर को घेरने और बर्दायस के विरोध की योजना बना ली।  पी मेशन का 12 जनवरी 1921 को ककोड़ा खाल में कैम्प लगा। उनके तम्बू तपाण के उपरी तरफ कर्मचारियों के छप्पर भी बने हुए थे। मेशन दिन के करीब १२ बजे ककोड़ा खाल पंहुचे। इधर आन्दोलन की योजना के अनुसार ही अनुसूया प्रसाद बहुगुणा अपने कुछ साथियों के सहित ककोड़ा खाल पहले ही पंहुच चुके थे और वहां उन्होंने आसपास के गांवों मुख्य रूप से सारी छिनका नाग और क्षेत्रीय गांवों के लोगों को जागरूक किया। लोग जुटने लगे तब अंग्रेजों के अनेक मालगुजार जैसे आलम सिंह बिष्ट जैसे लोग भी बहुगुणा जी साथ हो लिए उनके आवाह्न और औजी मंगूदास और कालादास के ढोलदमांऊं वादन के जय घोष से साथ सैकड़ों ग्रामीण सारी के चौंरा नामक स्थान पर एकत्रित हुए जहाँ बहुगुणा जी का ओजस्वी भाषण हुआ इस संभाषण के बाद वहां कट्ठे लोगों में बर्दायस प्रथा के विरुद्ध जोश भर गया। वहां से भीड़ डिप्टी कमिश्नर पी मेशन के कैंम्प की ओर बढ़ गयी बहुगुणा जी ने पी मेशन वापस जाओ बर्दायस प्रथा समाप्त करो जय हिंद और बंदे मातरम् का जयघोष किया।  देखते ही देखते भीड़ उग्र हो गई डिप्टी कमिश्नर पी नेशन के तंबू फाड़ डाले इस पर कमिश्नर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया लेकिन कमिश्नर के पास गिनती के सिपाही थे यह बात बहुगुणा जी ने कमिश्नर को संभाल समझाएं समझाया की गोली चलाने का आदेश वापस ले लो नहीं तो उग्र भीड़ तुम लोगों का क्या हश्र करेगी यह तुम लोगों को समझ जाना चाहिए कमिश्नर सहम गया उसने डर के मारे गोली चलाने का आदेश वापस ले लिया और चुपचाप परिवार सहित ऊपरी चप्पलों में चला गया ऊपर के छप्पर में चले गया इधर अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने आसपास के गांव और गांवों को भी इस आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रण भेज दिया लेकिन दूसरे दिन सुबह पता चला कि डिप्टी कमिश्नर पी मिशन सुबह सवेरे ही डिप्टी कलेक्टर चन्द्रादत्त जोशी के साथ चुपचाप वापस चले गया है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 12 जनवरी उन्नीस सौ 21 का ककोड़ा खाल आंदोलन स्वर्णिम इतिहास में दर्ज हो गया। (फोटो श्रोत – रमेश पहाड़ी का आलेख ) 
इसके 2 दिन बाद मकर संक्रांति को कुमाऊं के बागेश्वर जिले में सरयू-गोमती नदियों के संगम पर लगने वाले उत्तरायणी मेले में भी बैरिस्टर मुकुंदी लाल के नेतृत्व में कुली बेगार प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन हुआ तभी से वहां का उतरायणी मेला इतिहास में अंकित है। 
  हालांकि ककोड़ा खाल आन्दोलन के समय पी मेशन चुपचाप वापस चले गया परन्तु उसके बाद उसके आदेश पर चुन चुन कर ककोड़ा खाल के ६६ आन्दोलनकारियों को कारावास की सजा हुई सारी गांव के मालगुजार आलम सिंह की मालगुजारी तथा कांडई के थोकदार हयातसिंह नेगी की थोकदारी जफ्त कर ली गयी और पट्टी दश्जयूला क्षेत्र ७२ गांवों को दस नम्बरी घोषित कर वहां के सभी विकास कार्यों पर रोक लगा दी गयी।  लेकिन इस आन्दोलन ने विरोध का जो शंखनाद किया उससे पूरे अपर गढ़वाल में ककोड़ा खाल के इस आंदोलन का प्रभाव इतना अधिक हुआ कि जगह जगह अंग्रेजों की बर्दायस के विरुद्ध आंदोलन होने लगे अनुसार प्रसाद बहुगुणा ‘गढ़केशरी’ कहलाये और देेश भर में चल रहेे विभिन्न आंदोलन ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में परिवर्तित होकर १९४२ के भारत छोड़ो आंन्दोलन बने। 

      (फोटो श्रोत – मुख्य धारा पोर्टल) 

कुली बेगार प्रथा के विरुद्ध गढ़ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में ककोड़ाखाल में हुए आंदोलन के ५६ बाद पद्मश्री चंडी प्रसाद भट्ट ने नैनीताल से ककोड़ा खाल तक यात्रा निकालकर इस ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया। वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश पहाड़ी के सुझाव पर ककोड़ाखाल को बर्दायस प्रथा समाप्ति का स्मारक स्थल बनाने की शुरुआत हुई। ककोड़ाखाल का यह क्षेत्र अब रुद्रप्रयाग जनपद में है और जनपद का उस जनपद का सबसे पिछड़ा क्षेत्र है यानि आजादी के बाद भी यह क्षेत्र उपेक्षित ही बना हुआ है। अंग्रेज़ी शासन की बेगार और बर्दायस व्यवस्था सालों चली थी उसमें  उत्तराखंड में लार्ड कर्जन रोड  बहुत से डांट पुल  पैदल रास्ते की रास्ते निर्माण कार्य बेगार प्रथा से ही हुए। ये बेगार और बर्दायस प्रथा स्वतंत्रता के काफी बाद तक किसी न किसी रूप में विद्यमान रही। हमें याद है सन् १९७० – ७२ तक हम अपनी जमीन की ४ रू किस्त पदान के माध्यम से पटवारी तक पंहुचाया करते थे। तब  नकद ४ रू भी बड़ी रकम हुआ करती थी। इस ऐतिहासिक आन्दोलन के 100 साल पूरे होने पर घोड़ाखाल के ऐतिहासिक स्मारक स्थल पर 12 जनवरी 2021 को भव्य शताब्दी समारोह का आयोजन किया जा रहा है पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भी इस आयोजन में भाग ले रहे हैं। इस कार्यक्रम में गढ़केशरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के भतीजे देवभूमि के संपादक एडवोकेट समीर बहुगुणा को सम्मानित किया जायेगा। उम्मीद है वर्तमान में रूद्रप्रयाग जनपद शामिल के इस पिछड़े क्षेत्र और शौर्य स्थल के संबंध में इस अवसर पर पारित बिंदुओं का निश्चित रूप से सरकार संज्ञान लेगी।