डाॅ सर्वपल्ली राधाकृष्णन कैसे बने गुरु श्रेष्ठ

 

5 सितम्बर- जन्म-दिवस *आदर्श शिक्षक डा. राधाकृष्णन*

प्रख्यात दर्शनशास्त्री, अध्यापक एवं राजनेता डा. राधाकृष्णन का जन्म पाँच सितम्बर 1888 को ग्राम प्रागानाडु (जिला चित्तूर, तमिलनाडु) में हुआ था। इनके पिता वीरस्वामी एक आदर्श शिक्षक तथा पुरोहित थे। अतः इनके मन में बचपन से ही हिन्दू धर्म एवं दर्शन के प्रति भारी रुचि जाग्रत हो गयी।

उनकी सारी शिक्षा तिरुपति, बंगलौर और चेन्नई के ईसाई विद्यालयों में ही हुई। उन्होंने सदा सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण कीं। 1909 में दर्शनशास्त्र में एम.ए कर वे चेन्नई के प्रेसिडेन्सी कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हो गये। 1918 में अपनी योग्यता के कारण केवल 30 वर्ष की अवस्था में वे मैसूर विश्वविद्यालय में आचार्य बना दिये गये। 1921 में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति के आग्रह पर इन्हें मैसूर के किंग जार्ज महाविद्यालय में नैतिक दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक पद पर नियुक्त किया गया।

1926 में डा. राधाकृष्णन ने विश्वविख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आयोजित दर्शनशास्त्र सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उस प्रवास में अन्य अनेक स्थानों पर भी उनके व्याख्यान हुए। उन्होंने भारतीय संस्कृति, धर्म, परम्परा एवं दर्शन की जो आधुनिक एवं विज्ञानसम्मत व्याख्याएँ कीं, उससे विश्व भर के दर्शनशास्त्री भारतीय विचार की श्रेष्ठता का लोहा मान गये। भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन की संस्तुति पर इन्हें 1931 में ‘नाइट’ उपाधि से विभूषित किया गया।

1936 में वे विश्वविख्यात अ१क्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बने। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें विदेश में दर्शनशास्त्र पढ़ाने का अवसर मिला था। डा. राधाकृष्णन संस्कृत के तो विद्वान् तो थे ही; पर अंग्रेजी पर भी उनका उतना ही अधिकार था। यहाँ तक कि जब वे अंग्रेजी में व्याख्यान देते थे, तो विदेश में रहने वाले अंग्रेजीभाषी छात्र और अध्यापक भी शब्दकोश खोलने लगते थे। 1937 से 1939 तक वे आन्ध्र विश्वद्यिालय तथा महामना मदनमोहन मालवीय जी के आग्रह पर 1939 से 1948 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।

*उनकी योग्यता तथा कार्य के प्रति निष्ठा देखकर उन्हें यूनेस्को के अधिशासी मण्डल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के नाते उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति में सुधार के सम्बन्ध में ठोस सुझाव दिये। 1946 में उन्हें संविधान सभा का सदस्य बनाया गया। डा. राधाकृष्णन ने अपने पहले ही भाषण में ‘स्वराज्य’ शब्द की दार्शनिक व्याख्या कर सबको प्रभावित कर लिया।*

*1949 में वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत बनाकर भेजे गये। वहाँ के बड़े अधिकारी अपने देश में नियुक्त राजदूतों में से केवल डा0 राधाकृष्णन से ही मिलते थे। इस दौरान उन्होंने भारत और सोवियत संघ के बीच मैत्री की दृढ़ आधारशिला रखी। 1952 में उन्हें भारतीय गणतन्त्र का पहला उपराष्ट्रपति बनाया गया। 1954 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। 13 मई, 1962 को उन्होंने भारत के दूसरे राष्ट्रपति का कार्यभार सँभाला।*

देश-विदेश के अनेक सम्मानों से अलंकृत डा. राधाकृष्णन स्वयं को सदा एक शिक्षक ही मानते थे। इसलिए उनका जन्म-दिवस ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। राष्ट्रपति पद से अवकाश लेकर वे चेन्नई चले गये और वहीं अध्ययन और लेखन में लग गये। 16 अपै्रल, 1976 को तीव्र हृदयाघात से उनका निधन हुआ।