पांडवों के उतराखंड आगमन से जुड़ा पर्व है ‘फुलसंग्रांद’? ?

डाॅ हरीश मैखुरी

आज चैत्र संक्रान्ति है, इसे फुलसंग्रांद और कहीं फुलदेही भी कहा जाता है। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल विशेष रुप से रुद्रप्रयाग और चमोली जनपदों में यह संक्रांंति पांडवों के आगमन से जुड़ी है, कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात पांडव जब प्रायश्चित करने हिमालय क्षेत्र में आए तो वे करतल भिक्षा तरु तल वासा भिक्षाटन करते हुए इस क्षेत्र में जगह जगह रहे। लोगों ने उनके स्वागत में रंगारंग पुष्प रास्ते और अपनेे दरवाजों पर बिछाये तभी से फुलसंग्रांद की परम्परा चली आ रही है। कहीं कहीं महिने भर बच्चों द्वारा दरवाजों पर फूल डालने की परम्परा भी है। मूल रूप से यह देवताओं केेे स्वागत का का पर्व है। ऐसा माना जाता है कि इस संक्रांति के उपरान्त देवता 6 माह के लिए देवभूमि में प्रवास करने आते हैं। इसी दिन से बद्रीनाथ केदारनाथ यात्रा की शुरुआत भी मानी जाती है, तब पैदल यात्रा का जमाना था इसलिए यह शुरुआत बहुत प्रासंगिक है। पांडवों ने उत्तराखंड क्षेत्र में आकर ना केवल कौरवों आदि हत्या के पाप से प्रायश्चित के लिए शिवदर्शनार्थ साधना की, अपितु पंच केदार जिसमें तुंगनाथ रुद्रनाथ कल्पेश्वर मद्महेश्वर और केदारनाथ मंदिरों की स्थापना की और यहां मिले साक्षात् शिवांगों के दर्शन के अनुसार उनके भव्य मंदिर बनवाए। परंतु इसके बाद भी शिवजी ने उनको पूर्ण दर्शन नहीं दिए और वे पाप मुक्त नहीं हो सके, तब वे यहां से नेपाल की ओर बढ़े और पशुपतिनाथ में शिव जी के समग्र साक्षात दर्शन कर महाभारत युद्ध के पाप कर्म से मुक्त हुए, यहां भगवान शिव ने उन्हें ज्ञान दिया कि “इतने लंबे समय में अनेक सिद्ध स्थानों पर मेरे विभिन्न रूपों के दर्शन करने और उसी स्वरूप के मंदिरों के निर्माण कराने के पश्चात अब आप सभी पांडव पाप मुक्त हुए हैं, यही आपका प्रायश्चित है अब स्वर्गारोहण के अधिकारी हो चुके हैं”। तब पांडवों ने काठमांडू में पशुपतिनाथ की प्रतिष्ठा की और भव्य मंदिर बनाने के बाद वापस फिर कुमाऊं के रास्ते उत्तराखंड हिमालय आए और बद्रीनाथ होते हुए स्वर्गारोहिणी की ओर चल दिए जहां उनको भीमपुल माता मूर्ति वसुधारा सतोपंथ में क्रमशः मुक्ति मिली और स्वर्गारोहणी से बैकुंठ धाम की प्राप्ति हुई। कुमाऊॅनी लोक संस्कृति मे भी पांडवों के दर्शन स्पर्शन भेंट के कारण यहां के लोक साहित्य में भिंटोली के रूप में इस का उद्बोधन मिलता है। गढ़वाल, कुमाऊं एवं जौनसार में यह पर्व ‘फुल फुल माई’ या “फुलदेई “ आदि अनेक नामों से मनाया जाता है,इसकी तैयारी के लिए जंगल से वनपुष्पों को चुन कर लाने वाले बच्चों को ‘फुलारी’ कहा जाता है। संभवतया उत्तराखंड में ‘ग्वाल पुज्ये’ के बाद ‘फुलफुल माई’ बच्चों का दूसरा बाल पर्व है। इस दिन महिलाएँ प्रवेश द्वार सहित घर को लाल मिट्टी गोबर गोमूत्र आदि से लीपती हैं, और सुबह-सुबह ही अनेक समूहों में बच्चों की टोलियाँ टोकरी में प्यूंली बुरांश,सरसों, सिलपाड़ी आदि के जंगली पुष्प दरवाजों पर डालते हुए गाते हैं
*फुलफुल माई दाळ द्ये चौंळ द्ये*
*फुलफुल माई खुल खुल खाज्जा*
*जय घोघा माता फ्यूंल्या फूल*
*देदे माई दाळ चौंळ।*
*वलि खोळा पलि खोळा घोघा नचायी*
*घोघा पुजारी क्वे नी पायी*।
*तांबे तोली फरफरु भात,*
*उठा फुलार्यों खुलिगि रात।*
कतिपय गांवों में बच्चों द्वारा यह गीत भी गाया जाता है
*’फूलदेई, छम्मा देई, देण द्वार भर भखार*
*यो देली सौं नमस्कार, पूजैं द्वार दैंणां हो बारम्बार’*
(इन गीतों का तात्पर्य है कि फूलदेही हम में ज्ञान और क्षमाशीलता दें,और दान देने वाले के घर अन्न धन के भण्डार बनें) ऐसा गाते हुए बच्चे घर के दरवाजे पर वनों से लाये गये फूल डाल कर देहली पूजन करते हैं। अक्सर यह देहरी पूजन वन पुष्पों से ही होता है, घर में उगने वाले पुष्पों से नहीं। कम ही लोगों को पता है कि यह वनदेवी ऐरी आंछरी नजर और दृष्टि दोष आदि से मुक्ति का अचूक उपाय भी है। बदले में इन बच्चों को सिक्के पैंसे चावल गुड भट खाजे फल पूड़ी पकौड़ी आदि देकर प्रसन्न किया जाता है, वस्तुतः ये बाल भगवान हैं, यही रीत है। विभिन्न घरों से मिले अनाज गुड़ आदि से शाम को प्रसाद बनता है, और भगवान कृष्ण और पंडों (पांडवों) का भोग लगता है। इसी दिन से पूरे महिने चैत्वाली गीत गाने की परम्परा थी इसमें प्रकृत्ति देवताओं और पंडों के गीत होते थे। अब चैत्वाली गीतों को गाने की परम्परा समयाभाव, उपेक्षा और मनोरंजन के अन्य साधनों के चलते लगभग कालातीत सी हो गयी है। इस क्षेत्र के सभी गांवों में शीतकाल या चैत में पांडव नृत्य का आयोजन भी पांडवों के आगमन से ही जुड़ा है, पांडव इस क्षेत्र के ईष्ट देवता हैं, उनकी अनुकंपा बनी रहती है और उनका आभास यत्र-तत्र होता रहता है। अनेक लोगों को अश्वस्थामा के भी प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं।