उत्तराखण्ड में पलायन का चौंकानेवाला इतिहास

उत्तराखंड में भले पलायन पर चिंतन और पलायन आयोग का गठन अब हो रहा है परन्तु पलायन का रोग बहुत पुराना है। 
1815 छूटपुट गौर्खों के साथ फौज में भर्ती। 
1887 फौज रोज़गार का जरिया।  
1900 मनीऑर्डर अर्थव्वस्था में तेजी। 
1925 क्वेटा कराची लाहौर मेरठ कलकत्ता घरवाली साथ लें जाने की प्रथा शुरू। 
1940 दिल्ली के सरकारी दफ्तरों में  चपरासी की नौकरी की शुरूवात। 
1969 दिल्ली मे सरकारी क्वाटर मे परिवार सहित रहना शुरू। 
1975 दिल्ली की कालोनियां मे मकान मिले और परिवार लाना शुरू हुआ। 
1979 D D A द्वारा पूर्व फौजियों को 1000 रुपये booking पर flat देने कि स्कीम शुरू की। 
1985 DDA द्वारा फ्लेटों का आबंटन और उत्तराखण्डियों के सपने शुरू। 
1986 सरकारी नौकरियों मे भारी वेतन बृध्दि सभी फौजी विधवाओं की पेंशन शुरू और महिलाओं का गाँव छोड़ना शुरू। 
1990 जमीन प्लाट फ्लेट से मालामाल हुए लोगों को देखकर प्रॉपर्टी खरीदने वालों कि संख्या कई गुना बढ़ी। 
1991 और 1993 भूकंप कि तबाही से प्राइवेट नौकरी वालों ने भी परिवार साथ लाने शुरू किये। 
1997 सरकारी नौकरों कि फिर तनख्वाह दूगुनी हुई ! हल्या बौडों ने भी अपनी दिनवारी और नखरे भी बढ़ा दिये तो लोगों ने पुंगड़े बांझे छोड़ने शुरू किए । 
2000 उत्तराखण्ड बना और देहरादून कि तरफ़ दौड़ शुरू। 
2002 धौनी के भारतीय क्रिक्रेट टीम मे आने से युवाओं मे जोश और उत्साह आया और बडी संख्या मे युवा बड़े सपने देखने लगे और कामयाब भी होंने लगे। 
2004 दिल्ली कि सीलिंग से परेशान उत्तराखंडी उत्तराखण्ड के शहरों मे बसने शुरू हुए और एकाएक जमिनों के दाम बेतहाशा बढ़ने लगे। 
2006 उत्तराखण्ड के शहरों मे जमीनों की तेजी से फौजी मास्टर सबने देहरादून कि तरफ़ दौड़ लगानी शुरू की, इससे कुड़ी पुंगडि बाँजे पड़ने में बहूत तेजी आयी। 
2008 इंजीनियर बनने की बीमारी ने जोर पकड़ा और हल्या भी परिवार को देहरादून भेजने लगे। 
2010 पडोसी के बेटों को विदेश मे देखकर बचे खुचे लोगों ने होटेल मेनेज्मेंट की पढाई के लिये  बच्चे गाँव से शहर भेजने शुरू किये। 
2012 सरकार ने पहली बार पलायन बीमारी की खोज की, परन्तु इलाज अभी तक नहीं।