सरल नहीं था संसार की सबसे ऊंची सरदार पटेल की मूर्ति बनवाना, एक जीवित इतिहास है स्टैच्यू आफ यूनीटी

 
मदन मोहन ढोंडियाल
( संसार की सबसे ऊँची मूर्ति “स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी” पर eGairsain पब्लिक ग्रुप की समीक्षा और दुनियाभर के प्रसारणों व समीक्षकों की समीक्षाओं का संक्षिप्त विवरण )
संसार की सबसे ऊँची मूर्ति ‘स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी’ जिसकी ऊंचाई 182 मीटर है ,सरदार सरोवर बांध के दक्षिण में स्थित नर्मदा नदी के साधु बेटद्वीप पर बनी है. भारत के भूतपूर्व उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री स्वर्गीय सरदार वल्लभ भाई पटेल की इस मूर्ति का  अनावरण  आज 31 अक्टूबर, 2018 को भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने किया। भारत में प्राचीन इमारतों की उम्र जहाँ हजारों वर्ष है तो वहीँ स्टील का क्षय होना आधुनिक इमारतों को सिर्फ कुछ सौ वर्ष की उम्र देने में सक्षम है।  इतना जरूर है, देश के लौह पुरुषों को सम्मान उपलब्द स्रोत्रों से देना एक अनुकरणीय बात होगी। डॉ. देवांशु पंडित  ,प्रोफेसर, सीईपीटी यूनिवर्सिटी के अनुसार मूर्ति को भूकम्प रोधक तकनीक से सुरक्षित रखने का पूरा प्रयास किया गया है। लेकिन स्टील और सीमेंट की इमारतों या स्टैचू का समय लम्बी अवधि का संभव नहीं होता है। इस स्टैचू से देश के पर्यटन या गुजरात राज्य के पर्यटन को अवश्य लाभ होगा। इस मूर्ति के पहलू अपने में अलग विशेषताएं रखते हैं। यह मूर्ति अमरीका की प्रसिद्ध इमारत स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी की तुलना में दो गुना ऊंची है. बीबीसी प्रसारण  बताता है -अगर हम इस मूर्ति के बेस यानी आधारशिला से शुरुआत करें तो ये मूर्ति 182 मीटर ऊंची है. हालांकि, मूर्ति की ऊंचाई सिर्फ 167 मीटर लंबी है.  लेकिन इसे एक 25 मीटर ऊंचे बेस पर रखा गया है जिसकी वजह से मूर्ति की कुल ऊंचाई 182 मीटर हो जाती है. 
 इस मूर्ति को बनाने में 2,332 करोड़ रुपये का खर्च आया है. वहीं, पूरी परियोजना में कुल तीन हज़ार करोड़ रुपये का खर्च आया है.  साल 2012-2013 में इस परियोजना की शुरुआत के बाद सिर्फ 42 महीनों के समय में इस काम को पूरा कर लिया गया है.साल 2012 में इस मूर्ति के निर्माण के लिए टर्नर कंसल्टेंट नाम की कंपनी को एक प्रोजेक्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट के रूप में चुना गया.  ये वही कंपनी है जिसने दुबई की मशहूर इमारत बुर्ज ख़लीफ़ा के निर्माण को अंजाम दिया है. 
इस कंपनी का काम ये था कि ये एक कॉन्ट्रैक्टर का चुनाव करे जो कंस्ट्रक्शन मेथेडोलॉजी, परियोजना के काम की देखरेख, गुणवत्ता बनाए रखने और सुरक्षा मानकों के पालन को सुनिश्चित कर सके.  इसके बाद साल 2014 में लार्सन एंड टुब्रो नाम की कंपनी को इस परियोजना का इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट और कंस्ट्रक्शन यानी ईपीसी कॉन्ट्रैक्टर के रूप में चुना गया.  ईपीसी कॉन्ट्रैक्टर को चुने जाने की स्थिति में सिर्फ एक एजेंसी परियोजना की डिज़ाइन से लेकर सामग्री को हासिल करने और निर्माण करने के लिए ज़िम्मेदार होती है. ईपीसी कॉन्ट्रैक्टर चुने जाने के दौरान ये भी ध्यान रखा जाता है कि वह कॉन्ट्रैक्टर निर्माण कार्य में सक्षम है या नहीं.  लार्सन एंड टुब्रो ने इस प्रोजेक्ट में अपनी इन-हाउस डिज़ाइनिंग टीम का इस्तेमाल करने के साथ ही आर्किटेक्चर के लिए वुड्स बेगेट और स्ट्रक्चर डिज़ाइन के लिए अरूप इंडिया के साथ करार किया.  इस डिज़ाइन को चेक करने की ज़िम्मेदारी एजीज़ इंडिया और टाटा कंसल्टेंट्स एंड इंजीनियरिंग को दी गई. इस तरह के काम को प्रूफ़ कंसल्टेंसी कहा जाता है.  प्रूफ कंसल्टेंट बेसिक डिज़ाइन फ़िलॉसफ़ी के साथ-साथ खम्भों और कॉलम के आकार का निरीक्षण करके उनके इस्तेमाल की अनुमति देते हैं.
सरदार सरोवर निगम ने एक अमरीकी आर्किटेक्ट माइकल ग्रेव्स और मिन्हार्ड को भी इंटीग्रेटेड डिज़ाइन टीम में शामिल किया है. इन कंपनियों का काम इस परियोजना के तकनीकी पहलुओं की जांच करना था. इसके साथ ही सरदार सरोवर निगम ने तीस अन्य छोटे बड़े ठेकेदारों, पीएमसी और मुख्य ठेकेदार को इस परियोजना के लिए चुना था.  ये कंपनियां साइनेज़ डिज़ाइन करने से लेकर बीते 100 सालों का बाढ़ और हाइड्रोलॉजिकल डेटा के अध्ययन जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में पारंगत थीं.
इस मूर्ति को बनाने का काम दो भागों में बांटा गया था. इसमें से पहला भाग नींव रखा जाना था. वहीं, दूसरे भाग में मूर्ति खड़ी की जानी थी.
ऐसे में ये काम नींव रखने से शुरू हुआ और इसके बाद आधा भाग खड़ा किया गया. इस बीच एक कोर वॉल बनाई गई.  इसके साथ ही मूर्ति में एक हॉल बनाया गया है जिसमें एक बार में 200 लोग समा सकते हैं.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस गैलरी से जो तस्वीरें खींची हैं, उन्हें प्रतिमा के अनावरण के बाद जारी किया जाएगा. तीन हज़ार करोड़ रुपये खर्च करके बनी इस मूर्ति का वज़न 67 हज़ार मीट्रिक टन है.  लेकिन ये सवाल अहम है कि इतनी ऊंची मूर्ति हवा का दबाव, भूकंप, बाढ़ और हवा के प्रभाव को कैसे बर्दाश्त करेगी. भूकंप से भी ज़्यादा ख़तरनाक हवा का प्रभाव होगा.
इसी वजह से स्टैच्यू बनाते समय हवा के दबाव को सामान्य मानकर चलने की जगह +1 मानकर चला गया है ताकि ये हवा के दबाव को बर्दाश्त कर सके.  ये मूर्ति भूकंप की ज़ोन थ्री में आती है लेकिन ज़ोन फोर के आधार पर इस मूर्ति को बनाया गया है. भूकंप से बचाने के लिए इस मूर्ति में डक्टाइल डिटेलिंग भी की गई है.  ऐसे में ये कहा जा सकता है कि ये मूर्ति भीषण भूकंप में भी खड़ी रह सकती है.  लेकिन अगर किसी छोटी सी भूल चूक को अनदेखा कर दिया गया होगा तो ये कहना मुश्किल होगा. फाउंडेशन बनाते समय मूर्ति वाली जगह का सर्वे करने के लिए दूसरे तमाम जियो-टेक्निकल सर्वे करने के साथ-साथ लेडर तकनीक का इस्तेमाल भी किया गया है.  इस मूर्ति की नींव में टूटी हुई चट्टानों के टुकड़े शामिल हैं जिनमें क्वॉर्ट्ज़, मीका और दूसरे तमाम तत्व मौजूद होते हैं.
सरदार सरोवर बांध करीब होने की वजह से नींव खोदने के समय काफी सावधानी का ध्यान रखना पड़ा. इस वजह से डैमेज़ कंट्रोल ब्लास्ट किए गए.  इस मूर्ति की नींव को ज़मीन से 45 मीटर गहराई में जाकर रखा गया है. ऐसे में भूमि पूजन के लिए भी 15 मंजिल इमारत नीचे जाना होगा.
एक बार खुदाई पूरी होने के बाद पानी की बौछार से इस खुदी हुई जगह को साफ़ किया गया. इसके बाद नींव के चारों ओर 60 फीट चौड़ी आरसीसी की दीवार बनाई गई.ये एक तरह की राफ़्ट जैसी फाउंडेशन थी जिसमें साढ़े तीन मीटर ऊंचा कंक्रीट इस क्षेत्र में बिछाया गया.  इसके साथ ही नदी से बचाव के लिए भी उपाय किए गए हैं ताकि पानी का बहाव इसे अपने साथ बहा न ले जाए.  किसी भी ऊंची इमारत को बनाते समय हवा के दबाव को ध्यान में रखना सबसे ज़रूरी होता है क्योंकि 90 डिग्री के एंगल से पड़ रहा हवा का दबाव किसी भी चीज़ को उखाड़ सकता है.  ऐसे में इस इमारत की डिज़ाइन बनाते समय ये ध्यान रखना पड़ा कि ये हवा का तेज दबाव बर्दाश्त कर सके. लेकिन एक चुनौती ये थी कि ये स्टैच्यू नदी के तट पर स्थित है.  इस वजह से नदी के ऊपर बहती हवा से विंड टनल इफ़ेक्ट पैदा हो सकता था. ऐसे में ये इस मूर्ति पर पड़ने वाले हवा के दबाव का आकलन करना मुश्किल था. इस वजह से दुनिया की जानी मानी कंपनी आरडब्ल्यूआईडी को इसके लिए एक मॉडल बनाने के लिए चुना गया.
इस कंपनी ने बाउंड्री लेयर विंड टनल में अपने बनाए मॉडल की एयरो इलास्टिसिटी की जांच करके डिज़ाइनर्स की टीम को अपने इनपुट दिए.
स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी प्रति सेकेंड 60 मीटर हवा के दबाव को बर्दाश्त कर सकती है.  किसी भी मूर्ति में सीने का हिस्सा पैरों के हिस्से के मुक़ाबले काफ़ी चौड़ा होता है जोकि किसी इमारत के निर्माण के लिहाज़ से काफ़ी अजीब है.  इतनी ऊंची चिमनी बनाना आसान है क्योंकि नीचे का हिस्सा चौड़ा होता है और शिखर का हिस्सा पतला होता है. ऐसे में मूर्ति के लिए डिज़ाइन बनाना मुश्किल होता है. आधार और शिखर के बीच इस चौड़ाई के इस अनुपात को स्लेंडरनैस रेशियो के नाम से जाना जाता है जो कि स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी में बहुत ज़्यादा है.  इस वजह से इस मूर्ति की डिज़ाइन को बनाने में काफ़ी मेहनत की गई है. इसी वजह से नींव की डिज़ाइन बनाना भी काफ़ी चुनौतीपूर्ण था.  इस मूर्ति के दो पैरों को कोर वॉल के रूप में इस्तेमाल किया गया है. इनकी ऊंचाई 152 मीटर है.  कोर वॉल एक ऐसी तकनीक है जिसे ऊंची इमारतें बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.  
मुंबई में बनाई जा रही कई इमारतों में इसी तकनीक को इस्तेमाल किया गया है. मूर्ति की कोर वॉल एक अंडाकार सिंलेंडर जैसे होते हैं. आधार की तरफ़ इसकी चौड़ाई 850 मिलिमीटर होती है जो कि टॉप पर 450 मिलिमीटर होती है.   कोर वॉल में कई जगह पर स्टील प्लेट्स लगाई गई हैं ताकि उससे स्पेस फ़्रेम जोड़ा जा सके.   स्टील स्ट्रक्चर का इस्तेमाल इसलिए किया गया है ताकि स्पेस फ़्रेम को कोर वॉल से जोड़ा जा सके.
स्पेस फ़्रेम को लाने की वजह अहम है. क्योंकि इसी फ़्रेम से पीतल के पैनल लगाए गए हैं जो कि इस स्टैच्यू को आकार प्रदान करते हैं.  किसी भी स्ट्रक्चरल डिज़ाइनर के लिए कोर वॉल बनाना मुश्किल नहीं है.सामान्य कंक्रीट इस्तेमाल करने से अगले 10 से 15 सालों में कंक्रीट में दरारें नज़र आने लगतीं और ये मूर्ति टूटना शुरू हो जाती.  दुनिया की ऐतिहासिक इमारतें जो चार-पांच सौ साल पुरानी हैं, वे स्टील या कंक्रीट से नहीं बनी हैं.
हालांकि, इस इमारत के बनने में 22,500 मेट्रिक टन सीमेंट की खपत हुई है.इसके साथ ही 5700 मेट्रिक टन स्ट्रक्चरल स्टील और 18,500 टन आयरन रॉड्स का इस्तेमाल हुआ है.स्टील का इस्तेमाल एक ऐसी समस्या है जिसका कुछ नहीं किया जा सकता है. क्योंकि स्टील एक समय के बाद क्षय होने लगता है. लेकिन अगर कंक्रीट को ठीक से प्रयोग किया गया है तो इससे क्षय होने की रफ़्तार धीमी हो सकती है. लेकिन आख़िरकार स्टील का क्षय हो ही जाएगा.  जंग लगी हुई स्टील की रॉड किसी भी अच्छे कंक्रीट को तोड़ देंगी. इसके लिए एम65 ग्रेड का कंक्रीट इस्तेमाल किया गया है.
एम65 का मतलब है कि इस कंक्रीट में 65 मेगा पास्कल की ताकत है जबकि सामान्य इमारत में लगने वाला सीमेंट एम20 ग्रेड का होता है.
इस मूर्ति को बनाने में 12 हज़ार ब्रॉन्ज पैनल का इस्तेमाल किया गया है जिनका वज़न 1850 टन है.  पीतल के ये पैनल चीन से बनकर आए हैं जिसकी वजह से एक राजनीतिक विवाद भी खड़ा हो गया था.  हालांकि, हर पैनल का आकार अलग-अलग है लेकिन सभी पैनलों का स्टैंडर्ड आकार 5*6 मीटर है. हम ये कह सकते हैं कि दुनिया की सबसे ऊंची इमारत को बनाने में विश्व के सबसे शानदार इंजीनियरों और डिज़ाइनरों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.