भारतीय संस्कृति के बचाव में उतरी कंगना ने बालीवुड को दिखाया दर्पण

कंगना के अतीत में झाँकते हुए छिद्रान्वेषीयों द्वारा उनके अभिनय कला के फोटो क्राप कर निजी जीवन पर अनेक प्रश्न उठ रहे हैं, संभव है! उन्होंने कोम्प्रोमाइज़ किये होंगे, हर साल हजारों कंगनाएँ बॉलीवुड द्वार आती हैं, उनमें से अधिकांश मुंबई की खाक छान कर  खाकर लौट जाती हैं।

यदि कंगना ने कहीं कोम्प्रोमाइज़ भी किये तो भी अपने देश और धर्म कोम्प्रोमाइज़ नहीं किये। अंडरवर्ल्ड में नहीं घुसी, किसी तैमूर को नहीं जना, उससे जो स्टारडम कमाया वह आज देश और देश की करोड़ों वर्ष की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के काम आ रहा है। इसके लिए उसने जो कीमत चुकाई उसका लाभ देश को मिलना तय है।

दस साल पहले वह क्या सोचती थी और क्या बोलती थी इसका हिसाब लगाना आसान नहीं है। क्योंकि पूरा देश ही दस साल पहले जो सोचता था वह आज नहीं सोचता, देश ने दस वर्षों में बहुत दूरी तय की है, और कंगना ने पूरे देश से ज्यादा ही दूरी तय की है, उसे उनकी इस विचार यात्रा के लिए सराहना मिलनी चाहिए, आलोचना नहीं।

कंगना आज सफल है, एक स्टार है। उसके सामने उसका आगे पूरा कैरियर पड़ा है पर कैरियर की परवाह किए बिना उसने देशहित में हमारे साथ खड़ा होना स्वीकार किया। आमतौर पर ऐसा कोई नहीं करता। एक हिन्दू जैसे जैसे सफल होता जाता है, अपनी जड़ों और अक्सर अपनी पहचान से दूर होता जाता है, सदी के नायक को ही देख लीजिए…उन्हें जिंदगी से और क्या मिलना है जो उनके पास आज नहीं है, अमिताभ बच्चन अब और क्या हो जाएंगे? लेकिन वे चद्दर चढ़ाते नज़र आ जाते हैं और अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाने का साहस नहीं उठा पाते। उनका सामाजिक कद दस फुट का हो, लेकिन धिम्मिपना नहीं जाता। सारे देश को इन्होने निराश किया है. क्यों कि ये महोदय ना तो पालघर पर कुछ बोले

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध 

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध

एक दौर था जब युसुफ खान दिलीप कुमार बन कर ऐक्टिंग करता था, अब महेश भट्ट को धर्मांतरित होने में झिझक नहीं होती। ये प्रशंसनीय है कि कंगना जैसे जैसे ऊपर गई है, वैसे वैसे अपनी हिन्दू पहचान के करीब आयी, इसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। संभवत या आजादी के बाद भारतीय इतिहास में कंगना पहली महिला है जिसने फिल्म जिहाद एवं फिल्म जगत में व्याप्त नशाखोरी को बेनकाब करने का बड़े पैमाने पर बीड़ा उठाया