“उतरैणी” जाने इस दैवीय लोक पर्व का महात्म्य

*जाने दैवीय लोक पर्व उतरैणी का क्या महात्म है ?*Know the great significance of this divine folk festival “Uttreni” 

यह पर्व, भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है , इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। एक दिन का अंतर लौंद वर्ष के 366 दिन का होने की वजह से होता है |

उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता ‘तीर्थराज’ की है। भगवान शंकर की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अतिरिक्त लुप्त सरस्वती का भी मिलन होता है। बागेश्वर पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोए हुए है। स्कंदपुराण के अनुसार बागेश्वर में प्रसिद्ध ‘बागनाथ मंदिर’ में संक्रान्ति के मौके पर बड़ा स्नान होता था। सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है। यहां आयोजित किए जाने वाले मेले ने लोगों को जोड़ने का काम किया। लोग दूर-दूर से आकर यहां पर रुकते थे। मान्यताओं के अनुसार 14 को तवाणी (गरम पानी का स्नान) और 15 को शिवाणी (ठंडे पानी का स्नान) किया जाता है।  उत्तराखंड में यह बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। लोग पूड़ी, खीर, हलवा घुघुते (आटा और गुड़ मिलाकर बनाया जाने वाला पहाड़ी व्यंजन) बनाते हैं।

*आजादी के आंदोलन में भी निभाई भूमिका:*
बागेश्वर की उत्तरायणी ने आजादी से पहले लोगों में राजनीतिक चेतना जगाने का भी काम किया। स्थानीय बोली में ‘स्वराज हुनैर छु'(स्वराज्य होने वाला है) की भावना यहीं से गांव-गांव पहुंची। अंग्रेजों ने उत्तराखंड में कुली उतार और कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथाएं पहाड़वासियों पर लादी थीं। एक समय पहाड़ पर अंग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली मिलना कठिन था। इस प्रथा के अंतर्गत हर एक गांव में बोझा ढोने के लिए कुलियों के रजिस्टर बनाए गए थे। अंग्रेज के आने पर ग्राम प्रधान या पटवारी आवाज लगाता था। जिसके नाम की आवाज पड़ती, उसे अपना सारा काम छोड़कर जाना जरूरी था। सन 1929 में उत्तरायणी के दिन बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबो दिया गया। तब से उत्तरायणी अन्याय के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बन गया। इसका महत्व और भी बढ़ गया।

*उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन का अलख जगाने में निभाई भूमिका:*
उत्तराखंड क्रांति दल ने पृथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन के सन्देश को जन जन तक पहुंचाने के लिए कौतिकों को प्रमुख माध्यम के रूप में चुना, जिसमें उतरैणी मकरायणी में बागेश्वर का सरयू बागड़ सर्वोपरि आता है, 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने इसी दिन, यही से उत्तराखंड पृथक राज्य की सम्भावना पर अपना ब्लू प्रिंट जारी कर गैरसैण चन्द्र नगर को उत्तराखंड की राज्यधानी बनाने का निर्णय लिया.

*प्रवास में इसका महत्व:*
अपनों को करीब लाता है, उत्तरायणी कौथिग, देवभूमि उत्तराखंड अपनी संस्कृति, परंपरा, वेशभूषा और खान-पान के लिए जाना जाता है। जीवन की भागदौड़ के लिए प्रवास की ओर रुख करने वाले उत्तराखंड के लोग हर साल अपनी सांस्कृतिक पहचान को और समृद्ध करने के लिए उत्तरायणी कौथिग (मेले) का आयोजन करते हैं। आज की तारीख में उत्तराखंड के अलावा कौथिग का वृहद आयोजन प्रवास में भी होता है। यह मेला उत्तराखंड के समाज को जोड़ने और अन्य लोगों को उत्तराखंड की संस्कृति से रूबरू कराने का जरिया बन गया है।

उत्तराखंड की पुरानी पीढ़ी तो अपनी जड़ों को अच्छे से पहचानती है लेकिन युवा अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों के बारे में उतना नहीं जानता है। इसी पीढ़ी को अपने कल्चर से जोड़ने के लिए कौथिग का आयोजन जरुरी है। यह आयोजन सांस्कृतिक पहचान के साथ एक-दूसरे से मिलने जुलने का प्लेटफॉर्म मुहैया कराता है। कोशिश ये हो कि हम उत्तराखंड की उन परंपराओं को कौथिग में लेकर आए, जिसको लोग भूल चुके हैं। इसके साथ ही दूसरे समाज के लोग भी इस मेले में शिरकत करें, जिससे उनको उत्तराखंड के गौरवशाली इतिहास की जानकारी मिले।

कौथिग में अल्मोड़ा की बाल मिठाई, पहाड़ी नीबू, गंदरैंणी, पहाड़ी लाल अदरक, पहाड़ी अरबी, लहसुन, मुनस्यारी का राजमा, गहत की दाल, भट्ट की दाल, जम्बू, हल्दी, मिर्च धनिया, आटे में रागी, पहाड़ी सफेद मक्का, पीला मक्का और चावल का आटा, नाल बड़ी, पेठा बडी, ककडी बड़ी, पहाड़ी रायमा और आलू के गुटके भांग के बीज से तैयार चटनी संग खाना, बुराश का शर्बत आदि को बाजार उपलब्ध कराने की कोशिश हो रही हैं.

अपनी संस्कृति अपनी विरासत से जुड़ने के साथ ही यह मेला हमें खुद को जानने का एक एहसास है, कौथिग महज एक आयोजन भर नहीं है यह उन तमाम लोगों के लिए भावनाओं का एक प्लेटफॉर्म है जो अपनों से दूर रह रहे हैं। उत्तरायणी कौथिग हमेशा कुछ अच्छी यादें दे जाता है। हमारी पीढ़ी भी उत्तराखंड की संस्कृति को उतने बेहतर तरीके से नहीं जान पाई है। उत्तरायणी कौथिग हमारी संस्कृति को अगुवा है। हम इस आयोजन का हिस्सा बनकर गर्व महसूस करते हैं। नई पीढ़ी को मूल संस्कृति और रीति रिवाजों के बारे में बताने के लिए यह बहुत अच्छा जरिया है। मेला हमारे लिए लर्निंग प्लेटफॉर्म सरीखा है, जो हमें बहुत कुछ सीखाता है।  उत्तरायणी का यह मेला और तीर्थ स्नान मुख्य रूप से भगवान सूर्य के उत्तर गमन से है भगवान सूर्यनारायण जब उत्तरा पथ होते हैं तब उसे उत्तरायणी कहा जाता है उत्तरायणी पर उत्तराखंड के पंच प्रयाग ओं सहित कुल 14 परिवारों पर स्नान का बड़ा महत्व है हरिद्वार और प्रयाग राज में भी गंगा स्नान होता है लेकिन अब नहीं पीढ़ी गंगा स्नान की परंपरा को काफी हद तक भूल चुकी है और गंगा में प्लास्टिक प्रदूषण और घरों का सीवरेज डालने से भी गुरेज नहीं करती उत्तरायणी का यह पर्व नंदप्रयाग करणप्रयाग रुद्रप्रयाग देवप्रयाग ढूंढी प्रयाग सोनप्रयाग केशव प्रयाग विष्णुप्रयाग और प्रयागराज में मनाया जाता है। 

इस आयोजन से हम एक समाज के रूप में और मजबूत होते हैं।

*आइये सभी बदरपुर उत्तराखंडी साथीयो इस उतरैणी उत्सव मनायें और एकजुट-एकमुट का प्रतीक दे। – – सुरेन्द्र सिंह रावत