तपोवन आपदा में तकनीकी खामियों के चलते गयीं ज्यादा जानें, उच्च हिमालय में बड़ी विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर उठे सवाल

✍️एडवोकेट- हरीश पुजारी

तपोवन रैणी आपदा को लगभग 20 दिन होने जा रहे हैं, और अभी तक मृत एवं लापता लोगों के बारे में सटीक जानकारी नहीं मिल पा रही है, मीडिया में अधिकतर चर्चा बचाव कार्यों पर ही हो रही है, परन्तु इन जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में कंहा तकनीकी भूल हुई है, इस बारे में बहुत कम चर्चा की जा रही है।
तपोवन में बन रही इस जल विद्युत परियोजना को वर्ष 2006 में उत्तराखंड सरकार द्वारा एन०टी०पी०सी० (National Thermal Power Corporation) को निर्माण के लिए सौंपा गया था, उस वक़्त एन०टी०पी०सी० को जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण का बहुत ही कम अनुभव था, मूलतः एन०टी०पी०सी० कोयले से पानी उबालकर विद्युत उत्पादन का कार्य पूर्व में करती आ रही थी, और इस विभाग को थर्मल पॉवर के निर्माण में महारत हांसिल थी। उत्तराखंड सरकार के सिंचाई विभाग द्वारा इस परियोजना की रूप रेखा पर अनुसंधान किया गया था, परन्तु सिंचाई विभाग के इंजीनियरों को भी तत्समय पहाड़ों में बनने वाली इस प्रकार की परियोजनाओं का तकनीकी ज्ञान न्यूनतम था।
दूसरी ओर उत्तराखंड सरकार एवं मुख्य सचिव उत्तराखंड सरकार द्वारा तत्समय इको सेंसटिव जोन और ग्लेशियरों से भरपूर उत्तराखंड की इन पहाड़ियों में इस प्रकार की परियोजना को एन०टी०पी०सी० सरीखी नौसिखिया कंपनी को सौंपना स्वयं में एक घातक तकनीकी भूल थी। चूंकि यह परियोजना ग्लेशियरों के नजदीक, ऋषिगंगा के मुहाने पर बनाई जा रही थी, और इसके अंतर्गत कई किलोमीटर कच्चे पहाड़ों के अंदर सुरंग का निर्माण और जमीन के अंदर कई मंजिला पॉवर हाउसों का निर्माण होना था, जिससे समीपवर्ती कई गांवों के नीचे पूरा क्षेत्र खोखला होना लाजमी था, ऐसे में उत्तराखंड सरकार द्वारा तत्समय नौसिखिया कंपनियों को यह कार्य सौंपना आपदा को न्योता देना ही है।
स्वंय कार्यदायी संस्था द्वारा पुनः टनल व पॉवर हाउसों का निर्माण अनुभवहीन ठेकेदारों को क्यों सौंपा गया, जबकि 2013 में केदारनाथ आपदा में भी इस परियोजना में अत्यधिक बाढ़ व पानी से मलवा व गाद आ गया था, इसके बावजूद भी क्यों नहीं जिम्मेदार लोगों ने 2013 की आपदा से कोई सीख ली, क्यों नहीं गरीब मजदूर जो टनल के अंदर काम कर रहे थे उनकी सुरक्षा के लिए निकासी मार्ग बनाए गए और क्यों उन मजदूरों को किसी प्रकार की आपदा आने पर पूर्व सूचना इन निकासी मार्ग की दी गई थी, यहां तक कि एडवांस सायरन तकनीक का भी वहां अभाव था, अन्यथा सैकड़ों लोगों की जान बचायी जा सकती थी।
यहां तक कि वहां कार्य करवा रहे ठेकेदारों के पास भी आपदा से पूर्व ऐसी कोई लिखित जानकारी नहीं थी, कि उनके कितने मजदूर किस टनल पर किस लोकेशन पर उस दिन काम कर रहे थे, अगर यह जानकारी उपलब्ध होती तो बचाव दल को पांच दिन के बाद दूसरी टनल पर बचाव कार्य शुरू नहीं करना पड़ता।
यहां यह उल्लेखनीय है, कि इस आपदा के बाद केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा आपदा क्षेत्र का तत्काल सर्वेक्षण किया गया और दिल्ली जाकर उसी दिन सत्रह सौ करोड़ की हानि एन०टी०पी०सी० को होनी बताई इस सर्वेक्षण में कोई भी जानकारी इस प्रकार की नहीं जुटाई गई कि कितने लोग टनल में थे, और प्रभावित लोगों के लिए एन०टी०पी०सी० या ऊर्जा मंत्रालय क्या कार्यवाही कर रहा है, केवल एन०टी०पी०सी० के नुकसान की भरपाई की बात करना लोगों के गले नहीं उतर रही है।
जरा इस बात पर भी गौर किया जाए कि यदि इस आपदा के वक़्त वहां ये जल विद्युत परियोजनायें नहीं बन रही होती तो जान-माल का कितना नुकसान होता, मेरी राय में वहां ग्लेशियर खिसकने के कारण आयी आपदा में उस दशा में रैणी से लेकर ऋषिकेश तक कुछ भी जन हानि या सम्पति को नुकसान नहीं पंहुचता, क्योंकि जो जल स्तर आपदा में उस दिन बढा था वह बरसात में नदियों में आये जल उफान की तुलना में कुछ भी नहीं था।
अब इस प्रकार की जल विद्युत परियोजना नदियों के मुहाने पर बनाने से क्या फायदा? 1960-70 के दशक में भी उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनायें बनाई गई जो आज भी सुचारू रूप से चल रही है, अंतर यह था कि उस वक़्त जिम्मेदार नेताओं, अफसरों व तकनीकी अधिकारियों द्वारा ये परियोजनायें ऋषिकेश, डाकपथर, चीला, हल्द्वानी आदि इन स्थानों पर बनाई गई जहां पहाड़ खत्म होते थे और तराई का इलाका शुरू होता था, यही कारण था कि तराई में पूर्व में बनी इन जल विद्युत परियोजनाओं के कारण आज तक उत्तराखंड में न तो कोई आपदा आयी और न जन हानि हुई।

वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन रिजन देहरादून के पूर्व वैज्ञानिक और ग्लेशियरों के विशेषज्ञ डी. पी. डोभाल का कहना है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बनने वाली बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण में डीपीीआ बनाते समय ग्लेशियोंलाजीकल अध्ययन अवश्य रखा जाना चाहिए। 

आज हिमाच्छादित हिमालय में जगह-जगह सरकार व ठेकेदारों ने जल विद्युत परियोजना के नाम पर सुरंगे बिछाई हैं, जिससे पूरा हिमालयी क्षेत्र खोखला हो गया है, गांव के गांव भूस्खलन के चपेट में आ गए हैं, हमारे पीने के पानी के जल स्रोत सुख गए हैं, दूसरी ओर हमको महँगी बिजली, जजिया कर के रूप में जल कर, जल मूल्य, भवन कर अदा करना पड़ रहा है, परन्तु प्रतिदिन करोड़ों घन लीटर पानी का प्रयोग करने वाली इन परियोजनाओं के मालिकों को न तो जलकर देना पड़ता है, न बिजली का बिल न भवन कर। यहां पैदा होने वाली बिजली का दस प्रतिशत भाग स्थानीय जनपदों को निशुल्क दिए जाने की बात भी गायब क्यों हो गयी? 

संंप्रति- वरिष्ठ अधिवक्ता हाईकोर्ट, एवं जिला न्यायालय, तथा फाउंडर ‘बहुगुणा विचार मंच’ गढ़वाल-कुमाऊँ, मुख्यालय गोपेश्वर चमोली