मृत्यु भोज देना चाहिए ? क्या है तेरहवीं और श्राद्ध के पीछे का विज्ञान?

“क्या मृत्युभोज करना एवं करवाना उचित है ?

आजकल कुछ लोग तर्क देते हैं कि मृत्यु भोज करवाने की बजाए रुपये दान कर दो, 
लेकिन सवाल यही है कि हमारे पूर्वजों ने बिना वैज्ञानिक तत्थ्यों रिवाज बनाएँ होंगे?  
 

जैसा देखने को मिलता है मुस्लिम समुदाय में सबसे अधिक प्रेतबाधा जनित समस्याएं होती है।” ऐसा क्यों? दरअसल मुस्लिमों में प्रेतप्रकोप ज्यादा होने के अपने अलग कारण हैं। सबसे पहले तो इस्लाम को समझो। वो मध्य पूर्व की उसी धरती से उठा है जहाँ लाखों वर्षों से असुर  राक्षस व दैत्य दानव जातियों का प्रभुत्व था। इस्लामिक पंथ में मृत देह जलाई नहीं जाती, अपितु भूमि के नीचे सड़ती है। एक सर्वमान्य तथ्य है कि जीव को अपनी देह से अधिक कुछ भी प्यारा नहीं होता, जब मृत्यु होती है तो जीव को विछोह स्वीकारने में समय लगता है। इसीलिए गड़े हुए शरीर के आसपास जीव निरर्थक आशा में बहुत लंबे समय तक मंडराता है और फिर पीर,जिन्न , शख्स(सगस), इत्यादि प्रेत योनियों में भटकता है। लोग उनका सूफी साधना द्वारा किंचित उद्धार की बातें करते हैं लेकिन  सूफी पंथ तकरीबन लुप्त हो चुका है। अब तो सूफी नाम से केवल भूत प्रेत याचक व मनोरोगी ही हैं, दरअसल वे उन आत्माओं के मानसिक कब्जे में जा चुके होते हैं जिनके द्वारा उन्होंने झाड़फूँक टोटके द्वारा लोगों के स्वास्थ्य व धन इत्यादि संबंधित लाभ कराए। इसी की देखा देखी कुछ संगठन बिना तत्थ्यों को जाने और सोचे समझे इस परम्परा के विरोध में तर्क देते हैं 

अब आते हैं वैदिक सनातन या हिंदू विचार पर… 

हमने विगत ५०००० वर्षों से आत्मा की गति पर जितना विचार और प्रयोग किए हैं पूरी धरती पर सबने मिलकर उसका ३% भी नहीं किया है।

हमारे चिंतन की गहराई से कुछ निष्पत्तियाँ हाथ लगीं हैं।

आत्मा अपने शुद्ध बुद्ध स्वरूप में सदैव मुक्त है।उसे बंधन का भ्रम हुआ है।यह भ्रम ही शिव स्वरूप आत्मा को जीव स्वरूप में लाकर जन्म मरण के बंधन में डालता है।किसी सिद्ध द्वारा शक्तिपात होने पर जीव साधना करके फिर से अपने शिव स्वरूप को पा जाता है।उसका भ्रम नष्ट हो जाता है।इसे कहते हैं मोक्ष।
ऐसा ज्ञानी फिर जन्म नहीं लेता।उसके लिए दाहसंस्कार या उत्तर क्रिया की अनिवार्यता नहीं रहती।इसीलिये हमने संन्यासी के शरीर को जलदान या भूदान के योग्य माना।

पीछे आते हैं सामान्य संसारी जीव।इनका एक समूह होता है जो प्रारब्ध के कारण इन्हें मिला होता है।ये राजी नाराजी सब उसीमें करते हैं और उसमें आसक्त हो जाते हैं।

जब मृत्यु काल उपस्थित होता है तो ऐसा जीव अपने संबंधों को त्यागने से डरता है और बेहोशी में प्राण त्याग देता है।
पूर्व की आसक्ति के वशीभूत वह दाहसंस्कार के बाद भी अपने संबंधियो के आसपास मंडराता है किंतु जब १३ दिन की क्रियाओं से प्राप्त दैवीय ऊर्जा से उसका मोह कुछ कम होता है तो वह एक गहरी नींद में चला जाता है।

मृत्यु का सवा मास होने पर वह फिर जागता है और देखता है अब सब अपने जीवन में मस्त हैं… मैं अब उनके लिए नहीं हूँ तो सवा मास में संबंधियों द्वारा किए पुण्यों और अपने कर्मों के बल पर वैराग्य और बढ़ता है और इस बार वह फिर लंबी नींद में जाता है।

ये नींद पूरी होने पर वह पितृलोक में जागता है।वहाँ उसे अपने अन्य संबंधी मिलते हैं जो पहले चले गए थे।

वहाँ से वह धरती पर अपने लोगों को समय समय पर देखता और उनका ध्यान रखता है।
पितृलोक का एक दिन हमारे एक वर्ष के बराबर होता है अतः श्राद्ध में दिया वार्षिक भोजन उसका दैनिक भोजन होता है।
शुद्ध ब्राह्मण, कौआ,कुत्ता, गौ तथा घुमक्कड़ साधु यदि सादर भोजन कराए जाएँ तो उनके माध्यम से वह शक्ति पाता है।
बदले में वह परिवार को आशीष देता है जिससे परिवार का सुरक्षा कवच बनता है।

रह गई बात मृत्यु भोज की तो वो भी उत्तम तो है पर व्यक्ति की आर्थिक स्थिति देखते हुए उसे कम ज्यादा किया जा सकता है।

यदि परिवार सक्षम है और फालतू अय्याशियों पर लाखों या हजारों हर साल उड़ रहे हैं तो प्रियजन के निमित्त जीवन में एक बार उस समाज के भोज में आपत्ति क्यों जिस समाज से वह गहराई से जीवन भर जुड़ा रहा?
लेकिन दीनहीन निर्धन के लिए  मृत्यु भोज बाध्यकारी भी नहीं है, यथा योग्यं तथा कुरु।

आर्थिक स्थिति ठीक नहीं हो या कोई अन्य समस्या हो तो भी १२ दिन का समस्त उत्तर कर्म पंडितजी से अवश्य कराएं।मृत्युभोज न भी दे सकें तो किसी तीर्थ में गौशाला या आश्रम में अपने हाथों से गौ तथा साधुओं को अपनी सामर्थ्य के अनुसार नियत समय पर भोजन करा दें,किंतु इस विज्ञान को त्यागें नहीं। सवाल आपके अपनों का है क्योंकि पितृ सम देवता नहीं।  (महाभारत के प्रक्षिप्त अंश दिखा कर कुतर्क की आवश्यकता नहीं) अग्नि देव है .जो सूक्ष्म शरीर को उर्ध्व लोकों में गति करवाते है .अतः सामान्य लोगों को अग्निदाह दिया जाता है .मगर संत तो गति से परे हो कर ब्रह्मस्थित होते है , और उनकी मृत शरीर से भी सात्विक ऊर्जा का आविर्भाव होता रहता है , उस ऊर्जा का लाभ लेने के लिए उनकी भू समाधी बनाते है .बच्चे वासना मुक्त होते है , उनके सूक्ष्म शरीर स्वतः उर्ध्व गति करता है , अतः उनके शरीर की भूमिदाह या जलदाह किया जाता है .सिर्फ सनातन ही एक मात्र वैज्ञानिक , गणतांत्रिक और संप्रदाय निरपेक्ष जीवन पद्धति है .

वस्तुतः मृत्यु होती नहीं आत्मा चोला बदल देती है, जैसे हम कपड़े बदलते हैं। यही देह बदली कर्मफल फल के प्रारब्ध हेतुक होती है, सूकर कूकर बनेंगे या बनेंगे संत सब हमारे चेतन योनि के कर्मों पर निर्भर करता है। जो हमारा बैंक बैलेंस होगा वही तो निकलेगा। कर्मफल का सिद्धांत अपरिहार्य है पृथक पृथक भोक्षस्यसे शुभाशुभफल अवश्यमेव: भागवत्। अर्थात आपको “अपने शुभ अशुभ कर्मों का प्रतिफल आवश्यक रूप से अलग – अलग भोगना पडे़गा। – इस लिए जरा भी बुरा न करें।