तो अब राज मार्गों की चौड़ाई प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़कों से भी कम होगी?

डाॅ हरीश मैखुरी 

चारधाम जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं और पहाड़ी क्षेत्रों में राजमार्गों की चौड़ाई गांवों की सड़कों से भी कम रखने की दुर्भाग्यपूर्ण खबर है। ८मीटर पीएमजीएसवाई की सड़कें बन रही हैं ये तो चारधाम जैसी महत्वाकांक्षी और सामरिक महत्व की परियोजनायें हैं इनकी चौड़ाई केवल 8 मीटर करने और उसमें भी तारकोल वाले हिस्से की चौड़ाई केवल ५.५ मीटर रखने के आदेश ले आये? अंधेरगर्दी की भी हद है। विकास विरोधी लाबी पहाड़ में हमेशा सक्रिय रही है। ऐसे लोगों की वजह से पूरे पहाड़ उजड़ गए हैं। खेती बंजर पड़ गई है। गांव में अप्रोचेबल सड़के नहीं बन पा रही है, पानी की लाइनें नहीं अस्पताल और बड़े विद्यालय नहीं खुल पा रहे हैं। पता नहीं यह विकास विरोधी तत्व किस के लिए कथित पर्यावरण बचाना चाहते हैं। लोग पलायन कर रहे हैं। इन विकास विरोधी तत्वों को नहीं दिखता कि उत्तराखंड में इतनी कम भूमि में 12 नेशनल पार्क और नेशनल सेंचुरीज बनी हुई हैं जिस कारण यहां रोज ही गांव वासियों का वन्य जानवरों जानवरों से संघर्ष होता है सुवरों से संघर्ष होता है बाघ से संघर्ष होता है भालू से संघर्ष होता है। मनुष्य और पालतू पशु बेमौत मारे जाते हैं। लंगूर बंदर शाही फसल चपट कर जाते हैं, कभी यह पर्यावरण प्रेमी मनुष्यों के पक्ष में खड़े नहीं हुए। दरअसल यह विकास विरोधी लॉबी बड़े ही सूड तरीके से उत्तराखंड को पिछड़ा रखना चाहती है। टिहरी डैम की बिजली चाहिए टिहरी डैम में घूमने को चाहिए टिहरी डैम नहीं चाहिए था। विष्णुप्रयाग की बिजली चाहिए लेकिन विष्णुप्रयाग परियोजना नहीं चाहिए। सरदार सरोवर नहीं चाहिए लेकिन उसके जल से सिंचाई चाहिए। उसी तरह पंचेश्वर डैम लटका रखा है। उसी तरह से सड़कों का रोज रोना रोते हैं लेकिन जब सरकार अच्छी सड़कें बनाने लगी तो ये विकास विरोधी लाबी ग्रीन ट्रिब्यूनल से आदि कहां-कहां नहीं पहुंची और अंततोगत्वा सुप्रीम कोर्ट से आदेश ले आये। यह पहाड़ का दुर्भाग्य है। न्याय के देवताओं को पहाड़ की इस पीड़ा को समझना होगा। हमें धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए चारों धामों तक अच्छी सड़कें, अच्छी रेल लाइनें यातायात सुविधा विकसित करनी होगी, वैसे ही तिब्बत बॉर्डर तक चौड़ी सड़कें चाहिए होंगी, तभी हम दुश्मनों से देश व मानवता का बचाव कर सकेंगे, लेकिन इन विकास विरोधी लोगों को न देश की सुरक्षा की चिंता है और ना यहां के लोगों की। ये कथित पर्यावरण के ठेकेदार पहाड़ का कब से भला चाहने लगे? इनको किसने कहा तुम सुप्रीम कोर्ट जाओ सड़क की चौड़ाई रोकने के लिए? यह दिल्ली देहरादून में बैठे हुए लोग पहाड़ का दर्द कब से समझने लगे? इन विकास विरोधियों को चमोली, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी जैसे दुनियां से कटे पहाड़ों की ठेकेदारी इनको किसने दी? दरअसल यह विकास विरोधी काॅकस है जो विकास विरोध से ही पलती, फलता फूलता है लेकिन अजगर की तरह समाजिक विकास को निगल जाता है। कल को जब 10,000 – 15,000 पर्यटक 1 दिन में आने लगेंगे तब जगह-जगह लगने वाले जाम से मुक्ति के लिए सड़कें चौड़ी करने हेतु आन्दोलन होंगे। लेकिन उस समय सरकार के पास पैंसे भी हों? पता नहीं फिर कौन कह दे पैसे पेड़ पर नहीं लगते हैं, योजना की बाईबलेटी फिजीबिल्टी जैसे लाख अडंगे हैं। इस समय सरकार कर रही है, प्रधानमंत्री खुद इस परियोजना की समीक्षा करते हैं शायद यही बात कुछ सूडो सैक्युलर पर्यावरण के ठेकेदारों को खटक गयी है। जिस कारण इस योजना पर अडंगा डाल रहे हैं। हम सड़कों को पर्याप्त चौड़ी करने के पक्षधर हैं एक बार सड़क कट जाए, उसके बाद सड़क के दोनों तरफ पेड़ लगाइए पर्यावरण बचाइए कौन मना कर रहा है? अवधेश कौशल आदि जो लाबी इस परियोजना के पीछे हाथ घो कर पड़ी हैं उन्होंने ने पर्यावरण के लिए क्या कोशिश की है? कितने पेड़ लगाये हैं ? दिल्ली देहरादून से बैठ कर हिमालय का पर्यावरण बचाने वाले उत्तरकाशी चमोली पिथौरागढ़ के लोगों की जीवनशैली पर्यावरण और वनों के प्रति उनके स्वाभाविक मातृभूमि का लगाव कैसे महसूस किया जा सकता है? यह ठीक वैसे ही है जैसे अमेरिका के ऐसोआराम में रह कर कोई भारत में छोड़े हुए मां बाप की चिंता करें। यहां के लोगों को जीने लायक परिस्थितियाँ भी नहीं रहने दोगे?
पद्मश्री चंडी प्रसाद भट्ट जी स्थाई रूप से हिमालय में रहते हैं। उनके वृक्षारोपण अभियान हमने देखे हैं बल्कि विशाल वृक्षारोपण कार्यक्रमों में भाग भी लिया है वे तो इस परियोजना के विरूद्ध नहीं हैं। क्योंकि वे पहाड़ का दर्द और इस परियोजना का सामरिक और पारिस्थितिकीय महत्व समझते हैं। 
हिमालय निरंतर बढ़ रहा है उंचा उठा रहा है टूटता है बनता है भूस्खलन होता है यह लाखों वर्षों से हिमालय क्षेत्र की सामान्य प्रक्रिया है। ठीक वैसे ही जैसे मैदानी क्षेत्रों में नदियों के किनारे रहने वाले इलाकों में वर्षाकाल में बाढ़ आ जाती है। ये लोग यूरोपीय देशों को देखें जहां हमारे यहां से ज्यादा विकास, स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण है। हमारा कहना है वन क्षेत्र को बढ़ाने के लिए आम पंया आम बरगद पीपल भोजपत्र देवदार रुद्राक्ष पारिजात संतरे माल्टा के पेड़ लगाए जाय। यूकेलिप्टस से टिंबर मर्चेंट का भला होता है लेकिन धरती रूखी हो जाती है इस पर यह विकास विरोधी लॉबी कभी चर्चा नहीं करती। विकास के हर कार्य में 5 फंसाओगे तो देश आगे कैसे बढ़ सकता है? विदेशों में अपनी परम्पराओं, विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन देखना है तो ये कथित पर्यावरण संरक्षण के पुरोधा यूरोपीय देशों से सीख लें हैं जहां की चौड़ी चकली सड़कों के साथ हरे भरे सदाबहार जंगल देख कर कथित पर्यावरण वादियों को अवश्य कुछ सीख मिलेगी। शुरुआत में जब सड़क बनती हैं तब भूस्खलन होता है फिर धीरे धीरे प्रकृत्ति अपने घाव भर देती है ठीक हमारे शरीर की तरह।

पर्यावरण के बहाने विकास विरोधी लाबी चारधाम परियोजना और उत्तराखंड के लोगों की विरोधी सिद्ध भी हो रही है। अब जब यह सड़क परियोजना पिछले तीन-चार सालों में तीन चौथाई से अधिक बन चुकी है जो नुकसान होना था हो चुका है जो पेड़ कटने थे कट चुके हैं जमीन मकान वालों को और यहां तक कि अतिक्रमणकारियों को भी मुआवजा भी मिल चुका है ऐसी स्थिति में इस अति आवश्यक और महत्वपूर्ण सड़क की चौड़ाई कम करने का षडयंत्र हो रहा है तो इसको को विफल होना चाहिए, इस परियोजना में सड़क की चौड़ाई आठ मीटर इसमें भी ब्लैकटाप अर्थात तारकोल वाला हिस्सा केवल 5.5 मीटर यानी करीब १६ फिट ही रहेगा जिसमें दो बसें क्रास नहीं हो सकती हैं। आठ मीटर के करीब तो पीएमजीएसवाई की सड़कें बन रही हैं, ये तो चारधाम जैसी महत्वाकांक्षी और सामरिक महत्व की परियोजनायें और राष्ट्रीय राजमार्ग हैं। इससे तो जाम ही जाम लगेगा।  इस अंधेरगर्दी पर वृहद जनहित में केन्द्र सरकार को उच्चतम न्यायालय में अपील की पहल करनी चाहिए अथवा अध्यादेश लाकर वृहद जनहित का संरक्षण करना चाहिए, ताकि चारधाम परियोजना की चौड़ाई परियोजना के अनुुरू पूर्ववत रह सके। साथ ही उत्तराखंड केे पर्वतीय जनपदों में रेल लाईन केे काम में भी तेजी लानी चाहिए।