“संस्कृति की दुहाइयों का दौर”

  प्रेमचंद की यह टिप्पणी आज हिंदुस्तान में छपी है। बार बार पढ़ने गुनने लायक। हर भारतीय के लिए याद रखने लायक।  साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति

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