साहित्य व पत्रकारिता जगत की अपूर्णीय छति है राजेन्द्र धस्माना का चले जाना

 

हरीश मैखुरी

भारतीय दूरदर्शन के पहले संपादक, चलती फिरती लाइब्रेरी, लेखक, साहित्यकार, राजेन्द्र धस्माना जी की ईहलौकिक लीला पूरी हुई, ऐसा सुन कर अविश्वसनीय लग रहा है। आंसू आ गये। वे मेरे अत्यंत शुभ चिंतक मित्र रहे, गोपेश्वर आते तो ठहरते मेरे घर में ही थे। वे चारपाई छोड़ कर जमीन में बिना तकिये के सोते और जाड़ों में भी पैरों में रजाई नहीं लेते थे, वे सोते समय आवश्यक रूप से सिरहाना पूरब की तरफ करते। मैं जब भी दिल्ली जाता तब राजेन्द्र नगर स्थित उनके घर दोपहर का भोजन तय था। इस उम्र में भी किताबों के बिस्तर में सोने वाला शख्स, सच में किताबें ही उनकी संपत्ति रहीं। पैंसा और बनावट के उसूल उन्हें कभी छू भी नहीं पाये, मैने कभी उन्हें थकते हुए नहीं देखा । खादी उनका पसंदीदा पहनावा रहा, कंधे पर झोला लटकाये – गाड़ी छोड़कर पैदल चलने में उन्हें शुकून मिलता था।

उत्तराखंड आन्दोलन के लिए उन्होंने अपने स्तर पर बड़ा काम किया, 2 अक्टूबर 1994 के मुज्जफनगर कांड के पीड़ितों की लड़ाई में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही, एडवोकेट सुधांशु धूलिया और धस्माना जी ने गोपेश्वर सहित सभी पीड़ितों के घर घर जाकर हालात का जायजा लिया बयान दर्ज किए और अदालत में पैरवी के लिए तथ्य जुटाये। करीब 20 – 25 साल पहले एक बार उनका गला काफी सूझ गया, गले के पास फारनबाडी का हिस्सा काफी उभरकर दिखने लगा डाक्टरों ने एफनैस्सी (कैंसर की जांच) लिख दिया मैं बहुत चिंतित हो गया तब धस्माना बोले ‘हरीश तू क्यों चिंता कर रहा मैं मर ही नहीं सकता मैं अमर रहूँगा’ बीमारी की स्थिति में यह हौसला धस्माना जी के अन्दर ही हो सकता है। खैरियत रही कि वह गांठ थाईराईड ग्रंथि निकली। महात्मा गांधी के सम्पूर्ण जीवन के एक एक पल को उन्होंने कालक्रम वार अपने द्वारा संपादित ‘सम्पूर्ण गांधी वांग्मय’ में लिखा है। राजेन्द्र धस्माना के बड़े बड़े राजनेता फैन थे पर वे उनको ज्यादा भाव नहीं देते थे कहते हैं कि भारत की दशा के लिए ये ही तो जिम्मेदार हैं।

हिन्दी अंग्रेजी और उर्दू पर उनकी बहुत गहरी पकड़ थी वे बड़ी गंभीर बात सरलता से प्रस्तुत करने में यकीन रखते। निजी बातचीत वे अपनी गढ़वाली बोली में करते थे। बुजुर्ग और अत्यंत सम्मानित विद्वान होने के नाते विभिन्न सम्मेलनों और गोष्ठियों में जब धस्माना जी को कार्यक्रम की अध्यक्षता हेतु अनुरोध किया जाता तो वे बड़ी साफगोई से अपनी बात कहते ‘भाई मैं अध्यक्ष नहीं अभ्यस्त हूं आपका यह सत्कार मुझे मंजूर है बस मैं अपनी बात पहले रख दूँगा वर्ना जब अंत में मेरा नम्बर आता है लोग अपनी बात सुना कर जा चुके होते हैं’। एक दिन की बात है मैं, श्रीश डोभाल जी और राजेन्द्र धस्माना जी दिल्ली के कमानी थियेटर में रैपर्टी दिल्ली द्वारा प्रस्तुत एक नाटक देखने गये, वहीं मेरा पहली बार डाॅ नामवर सिंह और प्रभास जोशी जी से भी धस्माना जी ने परिचय कराया, उस दिन देह और आत्मा के अस्तित्व जैसे गम्भीर विषय पर परिचर्चा चली तो मुझे भी शरीक होने का मौका मिला। आज आत्मा के अलग होने का दुखद अहसास हो गया जब उत्तराखंड के विश्व विख्यात साहित्यिक संत ने रात (9.45 बजे ) मैक्स हॉस्पिटल, पटपरगंज, दिल्ली में अंतिम सांस ली, उनकी आत्मा को शांति मिले। निगांबोध घाट, नई दिल्ली में 17 मई, 2017 को बुधवार को सुबह 11.00 बजे दोपहर 2.00 बजे उनका अंतिम संस्कार हुआ।

आश्चर्यजनक रुप से दूसरे दिन के अखबारों में राजेंद्र धस्माना जैसे पत्रकारिता और साहित्य जगत की अजीम शख्सियत के चले जाने की खबरें गायब थीं अच्छा है सोशल मीडिया आज इतना प्रभावकारी और हर व्यक्ति तक गहरी पैठ रखता है कि यह खबर धस्माना जीे के मौत के 2-3 घंटे बाद ही वायरल हो गई और साहित्य और पत्रकारिता जगत की महान हस्तियां उनके अंतिम दर्शनों और संस्कार के लिए निगमबोध घाट पहुंची।