चिपको आंदोलन में शामिल लोग अपने को ठगा-सा महसूस करते हैं

रमेश पहाड़ी 

चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था और 24 अप्रैल 1973 को मंडल (गोपेश्वर) में साइमंड कंपनी को आबंटित पेड़ों का कटान रोकने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता आलमसिंह बिष्ट जी की अध्यक्षता में पूरे इलाके के लोगों की एक विशाल जनसभा आयोजित हुई थी। उस सभा में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वन-संपदा का उपयोग स्थानीय निवासियों के हित में होना चाहिए। बाद में इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए फाटा-रामपुर में केदारसिंह रावत जी के नेतृत्व में यही बात कहकर चिपको आंदोलन चलाने की घोषणा की गई और दोनों स्थानों पर जनता के भारी विरोध से डर कर ठेकेदार अपने मज़दूर लेकर खाली हाथ वापस लौटने को मजबूर हो गया था। रेणी में 24 सौ से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था। इसके बाद डॉ. वीरेन्द्र कुमार जी की अध्यक्षता में सरकार द्वारा गठित समिति ने भी इसपर अपनी संस्तुति दी और यह कटान पूरी तरह रोक दिया गया। इसके बाद चिपको आंदोलन विश्वव्यापी हो गया लेकिन वनों पर वनवासियों की जीविका व अस्तित्व के अधिकार की मांग से भटक कर यह आंदोलन पर्यावरण की पीड़ा का आंदोलन बना दिया गया, जिसमें वनों का अस्तित्व व वनवासियों की जीविका के सवाल दफन होकर रह गए। इसीलिए चिपको आंदोलन को एक दिशाभटक आंदोलन कहा जाता है, जिसकी गूँज तो विश्वव्यापी हुई लेकिन वनवासियों के हाथ कुछ नहीं आया और दुर्भाग्यपूर्ण रूप न वनों के भले की कोई इबारत लिखी जा सकी, न वनवासियों के। इसके उलट चिपको आंदोलन में शामिल लोग भी अपने को ठगा-सा महसूस करते हैं।