आचार्य चक्रधर जोशी की नक्षत्र वेधशाला देखे बिना अधूरे हैं देवप्रयाग के दर्शन

नरेन्द्र कठैत 

नक्षत्र वेधशाला: आचार्य पं. चक्रधर जोशी की अद्भुत कार्यशाला। 

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देवप्रयाग ! पंच प्रयागों में से एक प्रयाग देवप्रयाग ! जहां राज मार्ग पर खड़े होकर आप पर्यटकों से कहते हो! – ‘ओ देखो! सामने पैदल मार्ग के ऊपर रघुनाथ जी का भव्य पौराणिक मंदिर! अरे जरा हाथ जोड़ लो! सामथ्र्य हो तो चलो अलकनंदा भागीरथी के संगम पर हाथ मुंह धो लो! जानता हूं थके हो! छोड़ो! यहीं से दर्शन कर लो! बोलो! गंगा मैया की जय हो! अच्छा एक बात और गंगाजल खरीदना चाहते हो तो तनिक वाहन से उतर लो! ये रही पास ही दुकान! अरे भई…..! लेना है कि नही….! कोई सुनता ही नहीं! डराइबर साहब..! चलो! आगे बढ़ो….!’ बस इतना आख्यान देकर रोज न जाने कितने आगंतुकों को दौड़ा देते हो! लेकिन देवप्रयाग की वैदिक, बौद्धिक, वैभव निधि क्या इतनी ही है भई?

क्षमा करें! प्रश्न यह नहीं है कि आप या हम देवप्रयाग की समग्र वैदिक, बौद्धिक, वैभव निधि से विज्ञ हैं या नहीं हैं। किंतु यह सत्य तथ्य तो है ही है कि यह पवित्र भूमि सदियों से सिद्ध साधकों और आराधकों की कर्म भूमि रही है। प्रश्न यह भी नहीं है कि साधकों में आत्मबल अधिक रहा है या आराधकों की भक्ति में अधिक शक्ति रही है। लेकिन अगर किसी साधक ने अपने सीमित साधनों के बल पर असंख्य विलुप्त प्रायः वैदिक, बौद्धिक सम्पदाओं की रक्षा की है तो वह साधक भी इस क्षेत्र की गौरवशाली निधि की परिधि में तो है ही है। यदि देवप्रयाग की परिधि केे बाहर भी महान विभूतियों का आंकलन करें तो उत्तराखण्ड की अन्य अनेक विभूतियों में प्रातः स्मरणीय वह विभूति रही हैं- आचार्य पं. चक्रधर शास्त्री !

आपने पहाड़ की तात्कालीन विषम भौगौलिक परिस्थितियों में भी न केवल खगोलीय घटनाओं पर पैनी दृष्टि रखी बल्कि सैकड़ों विलुप्तप्राय दुर्लभ धर्म, दर्शन, संस्कृति, तंत्र-मंत्र, खगोल, अध्यात्म की सैकड़ों पांडुलिपियों, गं्रथों, पुस्तकों, ताड़ पत्रों, चित्रों सहित कई अमूल्य धरोहरों की भी प्राण प्रतिष्ठा की है।

साधना स्थली भी ज्यादा दूर नहीं! देवप्रयाग में राजमार्ग से थोड़ा हटकर एक पैदल राह तुणगी, भटकोट ग्रामीण अंचलों की ओर बढ़ती है। इसी पैदल राह की थोड़ी सी ऊंचाई नापते ही दायीं ओर एक बोर्ड पर दृष्टि टिकती है। लिखा है- ‘नक्षत्र वेधशाला देवप्रयाग, अगस्त 1946 – समुद्र तट से 2123 फीट की ऊंचाई।’ यह है गंतव्य तक की वास्तविक पैमाइश!

पैदल राह से लगा हुआ मुख्य द्वार!
द्वार लांघते ही नक्षत्र वेधशाला के प्रागंण में प्रवेश ! प्रांगण के एक कोने में दो युवा तल्लीनता पूर्वक पत्रावलियां उलटते-पलटले दिखे। उन्ही से जानना चाहा कि ….. ठीक तभी प्रांगण के दूसरे छोर से आचार्य के सुपुत्र डा. प्रभाकर जोशी दर्शन देते हैं। सामान्य शिष्टाचार के बाद समीप ही सुसज्जित प्रतिक्षालय में बैठने को कहते हैं । बामुश्किल दस मिनट बाद आवश्यक कार्य निबटाते हुए जोशी जी पुनः मुखातिब हुये – कठैत जी आइये!

आगे-आगे प्रभाकर जी! उनके पीछे उत्सुकतावश कदम बढ़ाये ! मुख्य भवन से सटी हुई भूमि पर आचार्य कुटीर! कुटीर में आचार्य की ध्यानस्थली पर उनका मौलिक सौम्य चित्र ! चित्र के ठीक सामने आपकी लेखनी, बड़ा सा कलमदान, करीब ही सौरमंडल के कई दुर्लभ माॅडल, लगभग दो शताब्दी पूर्व की सूर्यघटी, चन्द्रघटी, जलघटी, द्वादश अंगुल छाया गणित यंत्र, दुर्लभ खनिज, टिहरी रियासत का तत्कालीन मानचित्र, 1946 का डा. होमी मेहता, अहमदाबाद द्वारा परिचालित संसद भवन चित्रित कलेण्डर, मैथलीशरण गुप्त जी का 1936 का दुर्लभ फोटोग्राफ, छत से थोड़ा नीचे की शहतीर पर 1914 में कलकत्ता से प्रकाशित नागेन्द्र नाथ बसु द्वारा संपादित 24 खण्डों का हिंदी विश्वकोश, महात्मा गांधी सम्र्पूण वाग्मय तथा कई प्राचीन पुस्तकें, यूं आचार्य की संग्रहित बौद्धिक संपदा के हर एक कवच-कुंडल पर दृष्टि पड़ती गई।

वहीं एक स्थान पर दिवाल से टंगे एक फ्रेम पर कोई गोलाकार सी आकृति दिखाई दी। संज्ञान लेते ही डा. प्रभाकर जोशी जी ने शंका दूर की- ‘यह पहाड़ी कागज पर केन्द्र से परिधि की ओर एक पृष्ठीय हस्तलिखित ‘गीता’ है। तथा इसे लैंस के माध्यम से ही पढ़ा जा सकता है।’ उत्कंठावश फ्रेम से लैंस सटाकर देखा! अचरज की सीमा न रही। अद्भुत कृति!

एक दस्तावेज के बाहर लिखा है- ‘प्रदीप रामायण’ ! रचयिता- पं. मेधाधर शास्त्री! रचनाकाल- सन 1943 महाराज प्रदीप शाह का शासनकाल! कहते हैं यह उत्तराखण्ड की एकमात्र रामायण पाण्डुलिपि है। इसके साथ ही ब्रिटिश कालीन दुर्लभ पोस्टकार्ड, डा. राजेन्द्र प्रसाद की कुंडली, मोरारजी देसाई के पत्र, सुदर्शन, चांद, सरस्वती पत्रिकाओं के साथ कई जब्तशुदा पत्रिकाओं के दुर्लभ अंक, 23 जनवरी 1943 का दैनिक भारत का अंक, 19 जुलाई 1969 के ‘हिंदुस्तान’ का वह अंक जिसमें लिखा है- ‘मानव चांद पर उतरा युगों -युगों की साध पूरी।’

इसी परिसर में स्थित ‘श्री लक्ष्मीधर विद्या मंदिर शोध पुस्तकालय’ में भी सैकड़ों पत्र पत्रिकाएं मूलरूप में संरक्षित हैं जो दशकों बाद भी पठनीय हैं। प्रसंगानुकूल यह भी उल्लेखनीय है कि आचार्य शिव प्रसाद डबराल इतिहासकार के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। किंतु यकीन मानिए आचार्य डबराल ने बाल साहित्य भी भरपूर लिखा है। इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण इसी संस्थान में संरक्षित उनकी बाल साहित्य की पुस्तकें हैं।

खगोलीय घटनाओं की जानकारी के लिए एक 6 इंची लैंस से युक्त 1930 में निर्मित भारी भरकम जर्मन दूरबीन आज भी सुचारू रूप से कार्य कर रही है। साथ ही इंग्लैंड, जापान, ब्राजील से आयातित अन्य छोटी-बड़ी दूरबीनें भी संरक्षित हैं। ये सभी दूरबीनें कई अद्भुत खगोलीय घटनाओं की साक्षी रही हैं।

इसी ज्ञान-बगीचे में सन् 1620 में लुधियाना से प्राप्त ‘वास्तुशिरोमणी’, प्राचीन भृगुसंहिता के कई खंड, कांची कामकोटी शंकराचार्य के एक हजार वर्ष प्राचीन ताड़ पत्रिक ग्रंथ सहित संस्कृत, हिंदी, गुरूमुखी, उर्दू, तेलगू इत्यादि भाषाओं के लगभग 20000 ग्रंथ तथा ज्योतिष, वास्तुशास्त्र, तंत्र मंत्र की लभगभ 3000 पांडुलिपियां सुव्यवस्थित रखी गई हैं।

पलकें लगभग हर वस्तु पर टिकी किंतु उनका वास्तविक वजन न तोल सकी। वेधशाला में भव्यता का लेशमात्र भी आडंबर नहीं। पांडित्य का भी कोई लदाव नहीं। चहुं ओर सघन वृक्षों की शीतल छाया में चिंतन की गम्भीरता पसरी हुई। तमाम दूरबीनों की क्षमता से भी कहीं अधिक आचार्य की दूरदृष्टि ! अद्भुत ! अवर्चनीय !

राजमार्ग पर मात्र हर अगले हट, होटल, लाॅज, पिकनिक स्पाॅट, रिसोर्ट तक की दौड़ में शामिल लोगों को ‘नक्षत्र वेधशाला’ तक पहुंचने में थोड़ी कठिनाई अवश्य हो सकती है। किंतु यकीन मानिये यहां पहुंचकर जो अनुभूति होगी वह अवर्णातीत है।

एक पत्र में आचार्य चक्रधर जोशी जी ने संस्थान की परिकल्पना और उसके उदेश्यों पर प्रकाश डालते हुए स्वयं लिखा है कि – ‘यह संस्था एक शताब्दी से अधिक समय और विशेषतः सं. 2003 विक्रमी (सन् 1946) से व्यवस्थित कार्य कर रही है। इसमें प्राचीन (हस्तलिखित) अर्वाचीन -अप्राप्य दुर्लभ ग्रन्थों का विपुल चयन है। इस संस्था का मूल उदेश्य भारतीय महान पुरा संस्कृति का ज्ञान प्रसार करना है। जिसमें प्रमुख ज्योतिर्विज्ञान के त्रिविध अंगों – सिद्धहस्त संहिता और होरा- का समावेश विशेष है। इस विज्ञान के प्रत्यक्षीकरण के लिए इस संस्था ने ग्रह -नक्षत्रों व सूर्य निरीक्षणार्थ विशाल दूरवीक्षण यन्त्रों का (TELESCOPE) का भी वेधादि गणित सिद्धि के लिए संग्रह किया है। जिनका उपयोग निरन्तर होता रहता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन आर्यभट्ट, वराहमिहिर एवं भास्कराचार्यादि महान ज्योतिषियों द्वारा निर्मित-घटिका यन्त्र, ध््राुवघटी , द्वादशांगुल शंकु द्वारा काल का सूूक्ष्म निर्णय किया जाता है। और दि हिमालयन अस्ट्रोलाजिकल रिसर्च इन्स्टीटयूट’ के नाम से कई एक ग्रन्थों का प्रकाशन भी इस संस्था के द्वारा हो चुका है।’

ज्ञातव्य है कि आचार्य अनेक भारतीय भाषाओं के साथ-साथ चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, आध्यात्मिक संत, यौगिक क्रियाओं में सिद्धहस्त तथा खरोस्टी, ब्राह्मी, पाली आदि प्राचीन लिपियों के भी ज्ञाता रहे। यही कारण रहा कि ज्ञानमार्गी ही नहीं अपितु भक्तिमार्गी साधु संत, सिद्ध तांत्रिक तथा समय-समय पर श्रीयुत् देव सुमन, संगीतकार जयदेव, भजनसिंह सिंह, आचार्य शिव प्रसाद डबराल, हेमवती नन्दन बहुगुणा, भक्तदर्शन, भगवती चरण निर्मोही, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, वाचस्पति गैरोला, सुन्दरलाल बहुुगुणा, शिवानन्द नौटियाल, मोहन लाल बाबुलकर, डा. शिव प्रसाद नैथानी, डा. यशवंत कठोच, सतपाल जी महाराज सहित कई स्वनामधन्य एंव चलचित्र जगत से आशा पारेख, दीया मिर्जा भी आपकी बौद्धिक एंव आध्यात्मिक चेतना के सम्पर्क में रहे।

आगन्तुक पंजिका एवं प्राप्त पत्रों में स्वनामधन्यों का आत्मीय बोध कुछ यूं मिलता है –

‘इस वेधशाला का दर्शन कर यह अनुभव हुआ कि ज्योतिष को हमारे शास्त्रों में नेत्र कहा है। वह आज प्रत्यक्ष दर्शन हुआ । जोशी जी कलिकाल में ज्योतिष विधा के प्रचार प्रसार के लिए ही अवतरित हुए।’ – गोपालमणी, कथा वक्ता। – ‘आचार्य श्री चक्रधर जोशी जी द्वारा स्थापित ज्योतिष वेधशाला एवं सच्छास्त्र संग्रह, पाण्डुलिपियां देखकर पदम प्रसन्नता की प्राप्ति हुई। यहां आकर पता लगता है कि आचार्य श्री ज्योतिष ,तन्त्र शास्त्र एवं भारतीय वाग्मय के अनन्य साधक एवं मनीषी थे। उनकी साधना अद्भुत थी।’- चन्द्रास्वामी, नई दिल्ली।

– ‘परम पूज्य आचार्य जोशी का प्रश्नशास्त्र पर आश्चर्यजनक अध्ययन व फलित ज्ञान था। जो कि शत प्रतिशत सत्य प्रणाम कहते थे। अपने अध्ययन, अनुभव के आधार पर ज्योतिष शास्त्र के फलित ग्रन्थों आदि को लिखकर दैवज्ञजनों को नयी दिशा निर्देशन का कार्य किया है।’ – मोहन सिंह रावत, गांववासी ।- ‘श्री जोशी जी के त्याग एवं विद्यानुराग से प्राचीन तीर्थ देवप्रयाग में यह ख्याति प्राप्त संस्था स्थापित हुई। जिसका उपयोग गढ़वाल-सन्तान ही नहीं, बाहरी लोग भी आज कर रहे हैं। प्राचीन दुर्लभ पाण्डुलिपियों का यह अक्षय भण्डार है।’- यशवंत सिंह कठोच। – ‘मैं पांचवी बार स्नातकोत्तर स्तर के छात्रों को लेकर इस विद्या मंदिर के और स्व. आचार्य जी के कक्ष को प्रणाम करने पहुंचा।’ -डा. शिव प्रसाद नैथानी।

– ‘आश्चर्य जनक व महान संस्कृति धरोहरों को सजोये है यह संस्थान । मेरी ओर से शत-शत प्रणाम!’- अरूण माहेश्वरी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली । – ‘विद्या धरोहर नक्षत्र वेधशाला, देवप्रयाग के दर्शन कर धन्य हुआ। इसके निर्माता स्वर्गीय श्री चक्रधर जोशी जी को शत शत नमन ! गर्व होता है कि उत्तराखण्ड की धरती में ऐसे प्रकाण्ड विद्वान, राष्ट्र निर्माताओं का अवतरण हुआ।’ – सुरेन्द्र सिंह पांगती।

– ‘परमात्मा की कृपा व वन्दनीय परम पूज्य स्व. आचार्य श्री चक्रधर जोशी के सदप्रयास से सम्पादित भारतीय संस्कृति व ज्ञान के लिए गर्व व गौरव स्थल वेधशाला में आकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । देवभूमि उत्तराखण्ड के पवित्र स्थल देवप्रयाग में स्थापित यह संस्थान प्राचीन ग्रन्थों, हस्तलिखित दुलर्भ ग्रन्थों के संरक्षण के लिए सतत प्रयत्नशील है।….साधन से नहीं संकल्प से संकल्प से कार्य सम्पन्न होता है इसका यह सुन्दर उदाहरण है।….संरक्षण के लिए सुन्दर व आधुनिक उपाय हो सकें तो उत्तम रहेगा। पतंजलि इस कार्य के लिए यथा सम्भव सहयोग करेगा।’ – आचार्य बालकृष्ण।

दैवज्ञषिरोमणिभिः स्व. श्री चक्रधर जाश्षी महाभागै संस्थापितं श्री लक्ष्मीधर विद्यामंदिर समवलोकितम्। अत्र स्थिता नक्षत्र वेधशालासि अवलोकिता विद्यामन्दिरस्य पुस्तकालये विविध विषयेषु हस्तलिखित ग्रन्थाना संकलन विद्यते। स्व. जोशी महाभागानां पाण्डित्यंयेषु सुस्पष्टं परिलक्ष्यते। कतिपय प्रकाशित ग्रन्था अपि मया समवलोकिताः ये ज्योतिष खगोल विज्ञानादि विषयक जिज्ञासूनां कृते परमोपयोगिनःसन्ति। दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थानां यदि प्रकाशनं भवेन्तर्हि प्राच्य विद्या-गवेषकानांकृते महत्वपूर्ण सामग्री लब्धुं शक्यते।’ -डा. सुरेश चन्द्र शर्मा।

’आचार्य चक्रधर जोशी की वेधशाला एवं पुस्तकालय इस भूमि में जन्मे कई महामानवों में से एक विशिष्टमानव के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है।’- डी.आर. पुरोहित, श्रीनगर गढ़वाल। – ‘This Ashram and research centre is a gem in Garhwal and I am so happy to be back.Stefan Fiol University of Cincinnati USA .‘

‘भारतीय डाक तार विभाग’ द्वारा 2017 में आचार्य श्री पर आवरण ‘डाक टिकट’ महामहिम राज्यपाल डा. के.के पाॅल के कर कमलों से जारी की है। पतंजलि योगपीठ के आचार्य बालकृष्ण ने दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए एक वृहद आधुनिक स्लाइडिंग कम्पैक्ट आलमारी वेधशाला तक पहुंचाई है। आचार्य बालकृष्ण का यह कार्य निसंदेह मुक्त कंठ से प्रशंसनीय है।

राष्ट्रीय स्तर पर भी एक सकारात्मक पहल हुई है। भारत सरकार द्वारा ‘ राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन’ के तहत परिसर में स्थित शोध संस्थान को गढ़वाल क्षेत्र की पांडुलिपियों के संरक्षण, संवर्द्धन की जिम्मेवारी सौंपी गई है। ज्ञात हुआ कि क्षेत्रीय पुरातत्व विभाग ने भी कुछेक प्राकलनों पर अपनी तैयारी की है। देखना यही है कि इस दिशा में राज्य सरकार की पहल कब तक परिलक्षित होती है।

डा. प्रभाकर जोशी! आलेख में इस नाम को विस्तार देना इसलिए जरूरी है क्योंकि आप स्वनामधन्य महापुरूषों की उस अगली पीढ़ी से हैं जो पिछली पीढ़ी की सृजित अमूल्य नीधि को संरक्षित करना अपना युगधर्म समझती है। अन्यथा अधिकांश महापुरूषों की सृजन कड़ियां अगली पीढ़ी की घोर लापरवाही के कारण टूटती ही रही हैं।

16 अगस्त 1980 को आचार्य श्री की देहावसान की तिथि से आतिथि तक आप वेधशाला तथा पुस्तकालय के रखरखाव में तन, मन, धन से तल्लीन हैं। आपके बहुमूल्य सहयोग से ही कई शोधार्थी वेधशाला एंव पुस्तकालय की छाया में अपने महत्वपूर्ण शोध पत्र तैयार कर चुके हैं। कई शोधार्थी आज भी शोधरत हैं। यह लिखने में कदापि अतिशयोक्ति नहीं कि आप सदृष्य महानुभावों के सद्प्रयासों से ही हमारे स्वनामधन्य महापुरूष देह त्यागने पर भी हमसे दूर नहीं हैं। प्रभाकर जी! बौद्धिक संपदा के रक्षण, अनुरक्षण में आपकी लगन की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है!

नक्षत्र शाला मानव कल्याण के लिए अमूल्य निधि है! जितना आत्मसात एंव कलमवद्ध किया जाय उतना ही कम है। किंतु इन पंक्तियों को विराम देने से ठीक पहले अभिलेखों में श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा की इन सागर्भित पंक्तियों पर भी नजर टिकती है। लिखा है- ‘विद्या के इस केन्द्र में, उजाला ही उजाला है। जिनके ज्ञान चक्षु खुले हैं उनके द्वारा इस उजाले का लाभ निरन्तर मिलता रहे यही कामना है ! ’

निसंदेह ऐसे ही सद्प्रयास मानव सभ्यता के उच्चतम मूल्यों को प्रगति देंगे।