सरकारी और न्यायिक जुल्म की दास्तान थी बेगुनाह किरदेई

कुसुम रावत 

एक थी बेगुनाह किरदेई…हाँ एक थी बेगुनाह किरदेई! नई टिहरी जेल में नारकोटिक्स एक्ट में बंद तमिलनाडू की लाचार, बूढ़ी, बेगुनाह, सिर्फ आँसुओं की बोली बोलने वाली, चकड़ैतों की साजिश की शिकार 65 साल की कबाड़ी औरत किरदेई। चैंकिए मत- यह कथा-व्यथा एक लाचार-बेजुबान औरत की रोंगटे खड़ी करने वाली आप बीती है। दिल दिमाग को झकझोरने वाली यह कहानी मेरी जिंदगी का सुंदर पाठ और कड़वा सबक है। किरदेई की पीड़ा ने मुझे मजबूत किया। कानूनी षडयंत्रों का पता बताया। साथ ही कानूनी मकड़ जाल को तोड़ने की थकने-थकाने वाली कोशिश ने मेरा ‘सत्य’ पर भरोसा मजबूत किया। किरदेई की आँसुओं की धार ने मेरी अंतर्यात्रा को नया ठौर दिया। किरदेई ने ही मुझे परमात्मा का बोध कराने वाली ‘नई सड़क’ का पता बताया। किरदेई ने समझाया- कुसुम सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय में क्या अंतर है? और कैसे धैर्य धारण कर निर्भय मन से की गई विवेकी सामूहिक कोशिशों से सत्यमेव जयते जमीन पर उतरता है? नहीं तो मेरी क्या ताकत थी- नारकोटिक्स एक्ट में फंसी मुजरिम को छुड़ाने की- जो अपना गुनाह कबूल चुकी हो।

मैं किरदेई को भूल गई थी। अचानक 17 साल बाद गुरु स्मरण के कारण नई टिहरी जेल में कैद किरदेई मेरे खामोश अन्तर्मन में एक यक्ष प्रश्न के साथ फिर से आ खड़ी हुई, जेल से छूटने पर कोर्ट कंपाउंड में सूनी आँखों से आसमान को ताकती अपने इन आखिरी आखरों के साथ- ‘मैं काम की तलाश में तमिलनाडू से दिल्ली आई थी। पर वक्त ने मुझे टिहरी जेल पहुंचा दिया। मैं जेल में इसलिए रोती थी कि मैं बेगुनाह हूँ। आज मैं खुशी में रो रही हूँ। मुझे यकीन नहीं कि हो रहा है कि मैं जेल की तन्हाईयों से आजाद हो खुले आसमान के नीचे सांस ले रही हूँ। क्या मैं वास्तव में छूट गई हूँ? कहीं फिर से कोई मुझे कहीं और ना फंसा दे? मैं अब दिल्ली ना जा सीधे अपनी माँ के पास जाऊंगी। लोग परदेश में औरतों के साथ किसी न किसी तरह ऐसे ठगी करते हैं कि औरत निर्दोष होते हुए भी ऐसे फंस जाती है कि उसे खुद को बेगुनाह साबित करना मुश्किल हो जाता है? यह ईश्वर की कृपा और कुछ औरतों का सहयोग था कि मैं निर्दोष करार दी गई…।’

यह महज संयोग है या कुछ और? पर कुछ तो जरूर है किरदेई कथा में। सन् 2001 की बात है। मैं महिला समाख्या टिहरी में थी। राधा रतूड़ी कुछ दिन पहले ही कलक्टर बन टिहरी आई थीं। एक दिन सपाट शब्दों में बोलीं-कुसुम भारत सरकार ने 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष घोषित कर साल भर जिला प्रशासन से ठोस जमीनी काम की अपेक्षा की है। हम तुम्हें नोडल आफिसर बना रहे हैं। तुम हमारी ओर से कमान थामो। हमें तुम पर पूरा भरोसा है। तुम्हारा अनुभव काम आयेगा। मैं चुप रही। मेरी दिक्कत थी- मेरी निदेशक बड़े उलाहने देतीं- तुम हमेशा फालतू कामों में उलझी रहती हो। हम एक दिन तुम्हारी गर्दन उड़ा देंगे। निदेशक मेरी अच्छी मित्रा थीं। पर ये एक दिन की बात ना थी। मामला पूरे साल का था। कलक्टर अड़ी रहीं। कलक्टर का व्यकितत्व और स्वभाव कुछ ऐसा था कि मैं सोचने लगी क्या करूं? खैर मैंने दो दिन का वक्त मांगा। यद्यपि यह काफी मुश्किल था। पर मेरी हजारों औरतों की बेहद अच्छी, प्रतिबद्ध, ईमानदार टीम मेरे साथ थी। किसी भी कारण हेतु मरने-मिटने वाली ऐसी जुझारू टीम किस्मत से बनती है। सबने कहा दीदी फिकर नाट! निदेशक को आप मना ही लोगे। ये काम हमारे टिहरी जिले की औरतों के लिए उपयोगी होगा। फिर एक महिला कलक्टर के शब्दों की गरिमा का सवाल भी है। मैंने कलक्टर को हाँ कर दी। साल भर की ठोस कार्ययोजना बना मैं और मेरी सहकर्मी गुरमीत कौर कलक्टर को मिले। कुछ ऐसा खाका तैयार किया कि वह हमारे रूटीन काम के साथ फिट हो। हमारा कार्यक्षेत्र सिर्फ 4 ब्लाक थे। बाकी जगह जिला प्रशासन थामेगा। वहाँ हम रणनीतिकार, रिसोर्स पर्सन और दस्तावेजीकरण की भूमिका में होंगे। हाँ मैं समन्वय पूरे जिले में करूंगी। कलक्टर तो उछल पड़ीं।

समाज के हर वर्ग के साथ महिला मुद्दों पर बात करना तय हुआ। हमें साल भर में सब तक पहुँचना था। कुछ महिला मुद्दों का चयन कर हमने रातों-रात रोचक प्रचार-प्रसार सामग्री बनाई। कलक्टर हमारे साथ दिन-रात मेहनत करतीं। मेरे कार्यालय आ हमारा हौसला बढ़ातीं। 1 मार्च 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष की शुरूआत पूरे जिले में एक साथ हुई। मुझे याद है सैंट्रल स्कूल नई टिहरी का प्रांगण- जब शुरूआती कार्यक्रम के बाद स्कूल प्रांगण से कलक्ट्रेट तक पहली रैली निकली। शायद देश में यह अपनी तरह का यादगार मौका होगा- जिसमें खुद कलक्टर राधा रतूड़ी ने बैनर पकड़ महिला सशक्तिकरण रैली की अगुवाई की। जिले भर के सरकारी अधिकारी, स्वयं सेवी संस्थाएँ और समाज के हर वर्ग के हजारों लोग कार्यक्रम का हिस्सा थे। इसी क्रम में 7 मार्च को जेल कैदियों के साथ महिला मुद्दों पर कैदियों की सोच… पर एक गोष्ठी थी। मुझे लखनऊ जाना था पर एक दिन पहले स्कूली कार्यक्रम में पाँव में मोच आ गई। मेरा पाँव बहुत सूज गया।

सो लखनऊ ना जा मैं नई टिहरी जेल पहुँची। एस.डी.एम. विष्णुपाल धानिक साथ थे। अचानक मेरी नजर कैदियों की भीड़ में किनारे बैठी एकमात्र बेपरवाह महिला कैदी पर पड़ी। थोड़ी देर बाद वह किनारे जा खड़ी हो गई। हर बात से बेपरवाह वह औरत अब मेरे आर्कषण का केंद्र थी। कुछ था, उसमें जो वह मेरे दिल में उतर गई। मैं एकटक उसे देखती रही। उसकी सूरत मुझे आज भी याद है- एकदम झक सफेद बाल, घुटनों तक चढ़ी छींटदार हल्की हरी धोती, पुरानी पतली चिंथड़ेनुमा काली शाल लपेटी, डरी-सहमी, गठीले बदन की 65-70 साल की एकदम स्याह काली शक्ल की दक्षिण भारतीय औरत। उसका काला झुर्रीदार चेहरा अपमान के दंश से क्लांत था। चेहरे पर गुस्सा साफ छलक रहा था। उसकी चिंदी सी छोटी आँखें हमें घूर कर चीरने की कोशिश में थीं। आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। धानिक जी मजिस्ट्रेटी अंदाज में बोले- मैडम ये तमिलनाडू की स्मगलर है। नारकोटिक्स एक्ट में 5-6 महीनों से बंद है। इसे सजा होने ही वाली है। मैंने पास जा किरदेई को गौर से देखा। मेरा तो दिल ही बैठ गया। ना कुछ बोलते बना ना कहते। उसकी आँखें व चेहरा बता रहा था- वह बहुत कुछ बोलना चाह रही है पर उसके होंठ सिले हैं। वो चेहरा मैं कभी नहीं भूल सकी। वह हिंदी-अंग्रेजी कुछ नहीं जानती थी। पर कानूनी कागजों में उसे गूंगी बहरी बना उससे जुर्म कबूल करवाया जा चुका था। धानिक जी ने बताया- कैसे प्रशासन और वन विभाग के लोगों की बहादुरी से एक भांग के स्मगलगर गैंग को पकड़ा गया? बाकी 4 जमानत पर छूट गये पर यह औरत किरदेई गैंग लीडर है। सो इसकी जमानत नहीं हुई। वो बड़े खुश थे- गोया कितनी बड़ी बात बोल रहे हों। कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा- मुझे नहीं लगता यह स्मगलर है? कहीं जरूर कुछ बड़ी गड़बड़ है? आप इसकी शक्ल देखो कि क्या ये स्मगलर लगती है? मेरे पास किरदेई का कोई साफ फोटो नहीं पर किसी पत्रिका में छपी बड़ी मुश्किल से मिली यह तस्वीर देख आप तय करें क्या किरदेई स्मगलर हो सकती है?
गोष्ठी के बाद किरदेई जेल में बने छुटके से शिव मंदिर के पास खड़ी हो गई। उसके साथ बंदी रक्षक प्रेमा देवी थी। मैं कभी नहीं भूलती हूँ कि किरदेई कैसे एक टांग पर खड़ी आसमान की ओर शून्य में ताक रही थी। उसके हाथ जुड़े थे, उस अदृश्य ताकत के लिए- जिसे लोग ‘भगवान’ कहते हैं। किरदेई की आँखें बंद थीं। आँखों से बह रही आँसुओं की धार रुक नहीं रही थी। वह ऊँ नमः शिवाय…. बुदबुदा रही थी। मैं अंदर से हिल गई। मैंने प्रेमा को पूछा- जो अनजान मुल्क में जेल की ऊँची दीवारों के बीच आँसुओं के अलावा बेजुबान किरदेई की एकमात्र साथी थी। दयालु प्रेमा ने ही अजनबी माहौल में हौसला और अपनापन दे चारदीवारी में कैद किरदेई को बार-बार टूटने से बचाया- सिर्फ दिल की संवेदनाओं और आँखों की मौन भाषा से। किरदेई ने मुझे घृणा और अविश्वास से घूरा- जैसे मैं भी कोई नया षडयंत्र करने आई हूँ। वह झटके से परे हट फिर से महादेव की साधना में लीन हो गई। उसकी उपेक्षा भरी नजर ने मेरे विश्वास को और मजबूत किया कि गोया कुछ तो जरूर गलत है। जेल में सब किरदेई से सहानुभूति रखते। जेलर श्री दिवेदी और प्रेमा ने वो सब बताया जितना वो जानते थे। मसलन- किरदेई यहाँ महीनों से कैद है। वो ना कुछ बोल पाती है, ना हम कुछ समझ पाते हैं। वो कई-कई दिनों तक खाना नहीं खाती। कभी चप्पल नहीं पहनेगी। कभी सर्द ठंड में गरम कपड़े नहीं पहनेगी। हमारी दिक्कत है कि हम इससे बोल नहीं सकते। इसे समझा नहीं पाते कि हमें तुमसे सहानुभूति है। वो दिन रात इसी शिव मंदिर पर एक टांग पर खड़े हो रोती रहती है। बस एक ही शब्द हमने समझा- ऊँ नमः शिवाय। यह यूं ही बस ऊँ नमः शिवाय बुदबुदाते सूनी आँखों से आसमान में ताकती रहती है।

हाँ प्रेमा ने एक दिलचस्प बात कही- क्या आप वही कुसुम रावत हो जिसने महिला कैदी बलमदेई और कमला को छुड़ाया था? मैंने कहा हाँ। तो प्रेमा शिवालय पर गहरी श्रध्दा में माथा टेक संतुष्टि से बोली। हे प्रभु अब तो किरदेई जरूर छूट जाऐगी। प्रभु आपने ही कान्वेंट की नन लोगों की प्रार्थना पर कुसुम को जेल भेजा। मैं कुछ नहीं समझी। तो जो कुछ प्रेमा ने कहा वो बड़ा हैरान करने वाला सत्य है- नई टिहरी कान्वेंट की सिस्टर्स हर रविवार को कैदियों के साथ प्रार्थना करने जेल आती हैं। वो प्रार्थना के बाद बुदबुदाती हैं- हे यीशू कुसुम रावत को जेल भेज दो। हमें पहले कुछ समझ नहीं आया। बाद में पता चला कि सिस्टर लोग आपको जानते हैं। वे लोग ये भी जानते हैं कि आपने बलमा और कमला की मदद की। सो हर रविवार दिल पर क्राॅस बना इस बेचारी को ढांढस देते हैं कि- तू जरूर छूटेगी। यह सिलसिला कई महीनों से चल रहा है। मैं और धानिक जी हैरान रह गये। तो क्या सच में किसी दैविक प्रेरणा से कलक्टर राधा रतूड़ी ने मुझे यह काम सौंपा? और मैं लखनऊ के बजाए आज जेल में हूँ? खैर प्रेमा की बात को परमप्रभु का आदेश समझ मैंने तय किया- किरदेई की मदद करनी है पर कैसे? क्योंकि इसे सजा होने ही वाली थी- वो भी एन.डी.पी.एस.एक्ट में। कलक्टर बाहर थीं, नहीं तो उस दिन जरूर पंगा होता।

मैं सीधे कान्वेंट स्कूल गई। सिस्टर बोलीं- कुसुम किरदेई के आँसुओं और प्रार्थना में गजब की ताकत है। हम अचानक जेल आये थे। इसे देख हम रो पड़े। सो तय किया कि हम हर इतवार को जेल में प्रार्थना करेंगे। यीशू ने ही तुम्हारे दिल में यह प्रेरणा भेजी है। हृदय पर क्रास बना सिस्टर बोलीं- अब ये जरूर छूट जाऐगी। गोया जैसे मुझे कोई वरदान मिला हो औरतों को जेल से छुड़ाने का। मैं दुखी मन से घर गई। बहुत सोचकर मैंने पहले हकीकत जाननी चाही। मैं किसी तमिलभाषी की तलाश में थी। जो मुझे बता सके कि बात क्या है? किरदेई की पीड़ा महसूस कर मैं कई रात सो ना सकी। सब मुझ पर बहुत हँसते। कोई मुझे पागल ठहराता। मैंने सरकारी वकील से बात की। वह तो आग बबूला हो गये। अरे आप इसे कैसे छुड़ा सकते हो? यह तो स्मगलर है। बाकी मुजरिमों के वकील ने भी बड़ा हतोत्साहित किया। अगले दो दिन में हजारों फोन करने के बाद सैंट्रल स्कूल नई टिहरी में तैनात प्रवक्ता हरेन्द्र सिंह ने बताया कि वहीं तैनात टीचर सुनीता वी.कुमार कभी मद्रास में रही हैं। वो तमिल जानती हैं। ईश्वर ने पहली सफलता दी इस राहत भरी खबर के साथ।

वो होली का दिन था। मैं कभी किसी की बाईक में नहीं बैठी, पर उस दिन ये भी किया। हरेन्द्र ने दो बाईकमैन तैयार किये जो होली खेलने के बजाय मुझे और सुनीता को जेल ले गये। किरदेई का सुनीता से मिलना वरदान साबित हुआ। तमिलभाषी सुनीता को पा बेजुबान किरदेई को मानो जुबान मिल गई। पहले तो वह बहुत चिढ़ी पर बाद में उसकी शक भरी निगाहों में मेरे लिए थोड़ा सा भरोसा मैंने देखा। वह घंटों रोती रही।

सुनीता बड़े धैर्य से किरदेई का हाथ पकड़ चुपचाप उसे सुनती रही। वह उसे चुप कराती, पानी पिलाती। उसका हाथ सहला ढांढस बंधाती कि फिक्र ना करो। कुसुम को देख डरो मत। ये मेरी दोस्त है। ये तुम्हारी मदद करना चाहती है। तुम सब सच-सच बताओ। किरदेई की महीनों की घुटन उन चार घंटों में सुनीता से बात कर खत्म हुई। सुनीता ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया। किरदेई का सच जान मैं ही नहीं पूरा जेल स्टाफ हैरान था। पर लाख टके का सवाल था कि किरदेई को निर्दोष साबित करें तो कैसे? आप भी सुनिए किरदेई की कहानी उसी की जुबानी-

मेरा नाम करपाई है। मैं तमिलनाडू के डंडीकल जिले के चिन्नालपेटी गाँव की हूँ। मेरी उम्र लगभग 65 साल है। मुझे नहीं मालूम किसने मुझे कोर्ट के कागजों में कब और क्यों कैदी किरदेई बना दिया? मेरा एक भरा पूरा परिवार है। घर में मेरी माँ और छोटी बहन है। मेरी शादी 15 साल की उम्र में तय हुई। पर पिता की अचानक मौत ने मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी डाल दी। मैंने शादी ना करने का फैसला लिया। मैं माँ और बहन की जिम्मेदारी उठाने लगी। मैं कभी स्कूल नहीं गई। हमारी जिंदगी ठीक ठाक चल रही थी। अचानक मेरी किस्मत ने पलटा खाया। हुआ यूं कि- एक दिन खाना खाते वक्त मेरा छोटी बहन से किसी बात पर झगड़ा हो गया। माँ ने भी बहन का साथ दिया। मैं गलत नहीं थी। मुझे उस झगड़े से ज्यादा माँ-बहन के व्यवहार ने आहत किया। मैंने खाना छोड़ा और तय किया कि अब मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मैं काम की तलाश में परदेश जाऊंगी। यहाँ पर काम का दाम कम मिलता है। जो रोज की चिख-चिख का कारण है। माँ-बहन के व्यवहार ने मुझे अंदर से तोड़ दिया था। मैं सोचती रही- इनके कारण मैंने अपनी शादी तोड़ी, आजीवन अकेली रही। जो कमाया इनकी जिम्मेदारी उठाई और आज ये ऐसा व्यवहार कर रहे हैं? आखिर मेरा भी तो आत्म सम्मान है। पर मुझे नहीं मालूम था औरतों का आत्म सम्मान तो हमेशा गिरवी रहता है- ‘कभी पिता, भाई, पति की चैखट पर तो कभी समाज के दरिन्दों के पास?’ बड़ी उधेड़बुन के बीच मैंने इस उम्र में घर की चौखट छोड़ दिल्ली जाना तय किया। मैंने पड़ोस के गाँव के सेल्वम से बात की। उसका परिवार हमारा पुराना परिचित था। सेल्वम परिवार के साथ दिल्ली रहता था। सेल्वम ने मुझे भरोसा दिया। आँसुओं की धार के बीच किरदेई बोली- बस मैं ऐसे काम की तलाश में 6 साल पहले दिल्ली आ गई। पर दिल्ली आ मेरे सपनों को ग्रहण लग गया। परदेश में अकेली औरत कितनी लाचार होती है? ये मैंने तब समझा जब मैं तमिलनाडू से नई टिहरी जेल की सलाखों के पीछे पहुँची। पर क्यों?

बिलखती किरदेई बोली- मैं सेल्वम के परिवार के साथ दिल्ली में पपनकला बस्ती में रहती थी। मैं कुछ परिवारों में झाडू पोछा कर खाली समय में कबाड़ा बीनती। कबाडे़ से रोज 50-60 रूपये कमा लेती। झाडू-पोछा की आमदनी अलग थी। मैं सारा पैसा सेल्वम के पास जमा करती। मेरा रोज का खर्च 10-15 रूपये से ज्यादा ना था। मैंने सोचा घर जाते वक्त सारा पैसा एक साथ लूंगी। माँ और बहन इतना पैसा देख खुश हो जायेंगे। मुझे दिल्ली में 6 साल हो गये। किरदेई बोली- सेल्वम जुआरी था। उसे नशे की लत थी। वह घर में मारपीट करता। मैं परिवार की जरूरतों पर पैसा खर्च करती। बच्चों की देखरेख करती। मेरा 15-20 हजार से ज्यादा पैसा सेल्वम के पास जमा था। मैं जब पैसे मांगती वह टालता। हमारी कई बार लड़ाई होती। बाद में मैंने पैसे देने बंद कर दिये। मैं सेल्वम के सिवा किसी को नहीं जानती थी। सो चुप रहना मेरी मजबूरी थी। एक दिन वह बोला मेरे साथ टिहरी चलो। वहाँ डाम बन रहा है। वहाँ बहुत कबाड़ा मिलता है। खूब पैसा कमायेंगे। वहीं तुम्हारा पैसा भी लौटा दूंगा।

सेल्वम हम चार पाँच लोगों को टिहरी लाया- किसी चिरबटिया नाम की जगह पर। चिरबटिया से घनसाली तक मेरा सेल्वम से पैसों को ले खूब झगड़ा हुआ। मैं उसकी हरकतों से समझ गई थी कि यह किसी और वजह से यहाँ आया है। दरअसल सेल्वम चिरबटिया के स्थानीय लोगों के साथ मिल भांग की पत्तियों की स्मगलिंग करता था। वह किरदेई को वाहक की तरह प्रयोग करना चाहता था। विधि का विधान देखो- एक दिन बाद ही 11 नवंबर 2000 को किरदेई के दुर्भाग्य की कहानी शुरू हुई। घनसाली में वन विभाग और राजस्व कर्मियों ने जंगलात की चैक पोस्ट पर बस संख्या- यू.पी. 08-2377 की तलाशी ले बस की छत से बिस्तरबंद, बोरियाँ, बैग, वी.आई.पी. की अटैचियाँ बरामद कीं। सामान के साथ किरदेई और 4 लोग भांगपत्ती रखने के जुर्म में एन.डी.पी.एस. एक्ट में गिरफ्तार कर नई टिहरी जेल पहुँचा दिये गये। आश्चर्यजनक तौर पर सेल्वम गिरफ्तार लोगों में नहीं था। ना ही यह सामान किरदेई से बरामद किया गया था।

हैरानी की बात थी कि किरदेई के साथ गिरफ्तार 4 लोगों की जमानत हुई। वे सब छूट अपने देश चले गये। रह गई अकेली बूढ़ी किरदेई- अनजान देश में अजनबी लोगों के साथ जेल की चारदीवारी के बीच। किरदेई बोली- मैं भाषा से लाचार थी। मैंने इशारों और आँसुओं से बोलने की कोशिश की कि यह मेरा सामान नहीं है। मुझे फंसाया जा रहा है। पर किसी ने मेरी ना सुनी। जेल में मेरे साथी थे- सिर्फ मेरे आँसू, मेरा भगवान, जेल की ऊँची दीवारें और बंदी रक्षक प्रेमा देवी। किरदेई को नहीं मालूम था कि मेरा जुर्म क्या है? क्यों नहीं कोई मेरी बात सुनता है? मैंने आज तक किसी का दिल नहीं दुखाया। कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया। कभी चोरी नहीं की, कभी झूठ नहीं बोला। मैंने जिंदगी भर जड़ी बूटियां दे हजारों बच्चों और औरतों की जान बचाई। मैंने कभी इस काम का पैसा नहीं लिया। तुम ही बोलो सुनीता क्या मैं कभी ऐसा काम कर सकती हूँ? बोलते-बोलते वह जोर-जोर से चीखने लगी। मैं और दयालु सुनीता कई बार जेल आए। कभी-कभी वह मुझ पर बुरी तरह बिगड़ पड़ती कि आखिर मैं क्यों उसे तंग कर रही हूँ? खैर पूरी जानकारी ले मैंने अपनी रणनीति बनाई। मुझे पागल कह हंसने-डराने वालों की कमी ना थी। पर जब जरूरत होती तो हरेन्द्र और सुनीता तैयार मिलते। यह बड़ा सहारा था।

सरकारी वकील और सेल्वम एण्ड कम्पनी के पैरोकार बेहद नाराज थे। वो किसी तरह से किरदेई को मुजरिम करार कर असली मुजरिमों को बचाने के जोड़ तोड़ में लगे थे। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी। मेरे साथ महिला समाख्या टीम चट्टान की तरह खड़ी थी। किरदेई का चेहरा मुझे रात को सोने नहीं देता। भगवान बड़ा दयालु है। उसी दिन शाम मुझे अचानक किसी मित्र ने फोन कर कहा कि मैं तेरी किरदेई केस में मदद कर सकता हूँ। अगली दो छुट्टियों में मैं तुझे उसकी फाईल ला दूंगा। तू पढ़ और देख क्या हो सकता है? इसे फंसाया गया है। किरदेई से कोर्ट में भी लोग सहानुभूति रखते थे। पर कोई कानूनी दावपेंचों और षडयंत्रों के बीच उलझना नहीं चाहता था। मेरा यह मित्र सालों से मुझसे बहुत नाराज था कि मैंने बलमदेई को जेल से क्यों छुड़वाया? मेरे को तो यकीन ना हुआ। मैंने सोचा आज भाई जी ने जरूर कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली होगी? तब तक टिहरी में खबर आग की तरह फैल गई है कि कुसुम किरदेई का केस लड़ रही है। मेरा सर ईश्वर के चमत्कार के आगे शिद्दत से झुक गया, जब भाई जी ने अपनी नौकरी की परवाह ना कर मेरे हाथ में चुपचाप पफाईल रख दी। मैंने रात भर फाईल पढ़ी। कुछ बेहद जरूरी बातें समझ आईं कि- हाँ यह केस पलटा जा सकता है। इसमें बहुत कमियाँ हैं।

सो मैं नोट्स बना अपनी एडवोकेट दोस्त मृदुला जैन से मिली। दीदी ने बलमदेई सहित मेरे कई और केस फ्री में लड़े थे। वह हमेशा हमारी मदद करतीं। पहले दीदी ने हमेशा की तरह डांटा। पहले नारकोटिक्स एक्ट का डर दिखा खाना खिलाया पर मैं टस से मस ना हुई। कारण- किरदेई ना इस मुल्क की थी, ना उसे कोई यहाँ जानता- पहचानता था। ना किसी को उसकी परवाह थी। ना उसके घर वालों को पता था कि वह जेल में है। और तो और उसका तो नाम भी जेल दस्तावेजों में गलत लिखा था। मैंने मृदुला दी को धमकी दी- दीदी मुझे केस तो लड़ना ही है। आप चाहे मदद करो या नहीं। पर उसकी नौबत नहीं आई। दीदी को छोड़ हम कहाँ जाते? वो बड़ी दयालु हैं। रात को उनका फोन आ गया कि कुसुम मैं केस लड़ूंगी। तू वकालतनामा साईन करा ले। आह यह दूसरी जीत थी।

अब नई महाभारत थी- किरदेई से कागज पर अगूंठा लगवाना। उसे यह भरोसा देना कि हम सच में उसके दोस्त हैं। इन हालातों में किरदेई को कानूनी मदद से ज्यादा जरूरत थी- मानवीय संवेदनाओं, भावनात्मक सहारे, अपनेपन, एक अजनबी माहौल में भरोसे की जो हम उसे अलग-अलग तरीके से देने की कोशिश कर रहे थे। मैं, सुनीता और गुरमीत बार-बार जेल जाते। हमारी कोशिशों में साझीदार थी- बंदी रक्षक प्रेमा देवी। प्रेमा ने किरदेई को मौन भाषा में समझाया कि कुसुम तेरी मदद करना चाहती है। तू अंगूठा लगा दे। वह बुरी तरह चिढ़ बैरक में चली जाती।

इस बीच कलक्टर राधा रतूड़ी लखनऊ से लौटीं। वह रात मैं कभी नहीं भूलती। बाहर बहुत ठंड थी। हड्डियाँ काँप रही थीं। मेरा ड्राईवर प्रमोद पंत बड़ा नेक लड़का था। हर वक्त काम को हाजिर। शहर में रोशनी गायब थी। खूब आंधी तूफान उस दिन चला था। वह लगभग आठ बजे पहुँची। मैंने भी पूरी बेशर्मी से रात को ही मिलने की ठानी। सोचा डांटेगी या ज्यादा से ज्यादा मना कर देंगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कलक्टर सर्दी से कांप रही थीं। मैंने कई मोमबत्तियों की रोशनी में उनको कोर्ट की फाईल दिखा कहा- राधा दी यह अन्याय है। मैंने फ्री पैरवी हेतु वकील भी तैयार कर ली है। मैंने अपनी अल्प बुदधि से कलक्टर को समझाया कि केस में क्या-क्या कमियाँ हैं। मसलन-
 खचाखच भरी बस में भांग की बरामदगी हुई पर बस सीज क्यों नहीं हुई?
 खचाखच भरी बस में बरामदगी के बावजूद क्यों नहीं किसी यात्री को सरकारी गवाह बनाया गया?
 अपराधियों को क्यों नहीं 24 घंटे के भीतर कोर्ट में पेश किया गया?
 आपत्तिजनक सामग्री के बारे में क्यों नहीं प्रभारी नायब तहसीलदार ने उपजिलाधिकारी घनसाली को सूचित किया? और तीन दिन तक क्यों बरामद सामान अपनी कस्टडी में रखा ?
 क्यों केस में अपराधियों व सामान की बरामदगी राजस्व के बजाए वन विभाग के कर्मचारियों ने की?
 केस का दिलचस्प पहलू था कि बरामदगी तो बस से भांग की पत्तियों की हुई पर फोरेंसिक रिपोर्ट में बरामद सामग्री को गांजा बताया गया था। ऐसा क्यों?
इनके अलावा 10-12 ऐसे चैंकाने वाले तकनीकि बिन्दु थे, जिन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि किरदेई बेगुनाह है। मैंने कलक्टर से कहा- बस एक बार आप किरदेई की शक्ल देख लें। फिर आप तय करना कि क्या ऐसी दीन-हीन औरत से वी.आई.पी. सूटकेसों की बरामदगी सम्भव है? यदि आप मेरी बात से सहमत ना होंगी तो मैं चुप हो जाऊंगी। बाकी मैं खुद थाम लूंगी। वह एक सुलझे-संजीदे कलक्टर की तरह बोलीं-कुसुम परेशान ना हो। लगता है तुम कई रात से सोई नहीं हो। चलो गरमा गरम काफी पिओ, खाना खाओ। कल हम दोनों जेल चलेंगे।

अगले दिन हम जेल गये। किरदेई की शक्ल देख दयालु कलक्टर चुप हो बैरक में ही बैठ गईं। जेलर से उसकी हिस्ट्री जानी, फाईल पढ़ी। बंदीरक्षक प्रेमा से उसके आचरण के बारे में पूछा। डरी सहमी किरदेई को गौर से देखा। फिर मेरी ओर देख सिर्फ आँखों की भाषा में मेरे हर कथन की पुष्टि की कि हाँ यह बेचारी बेगुनाह लगती है। यह तो अपना नाम भी नहीं जानती। फिर कैसे इसने कोर्ट में अपना गुनाह कबूला? हम चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे। काले चश्मे के पीछे से लुढ़कते कलक्टर राधा रतूड़ी के आँसू मैंने देखे। वह उतनी ही चतुराई से उनको छिपाने की कोशिश में थी। हाँ जेल से लौटने से पहले दयालु कलक्टर किरदेई की मोतियाबिंद से पीड़ित आँखों और पाईरिया से सड़ते दांतों के इलाज का आदेश दे चुकी थीं। हम दोनों चुपचाप लौटे। रास्ते में नम आँखों से खामोशी से बोली- कुसुम तुम कुछ करो इसको बाहर निकालने को। यह बहुत ही गलत हुआ है। हम तुम्हारे साथ हैं। यह बड़ा भरोसा था कलक्टर का मुझ पर। तुमको मुझसे जो मदद चाहिए मैं तैयार हूँ। राधा रतूड़ी किरदेई से मिलीं यह बात आग की तरह फैली। अब किरदेई के केस में नया मोड़ आया।

अगले दिन मैं, मृदुला जैन और सुनीता जेल गए। किरदेई को सुनीता ने समझाया कि राधा रतूड़ी कौन हैं? और वह तुमसे सहानुभूति रखती हैं। तो पहली बार किरदेई की पथराई आँखों में हमने उम्मीद की किरण देखी। उसने चुपचाप वकालतनामा साईन किया। मेरी ओर बड़े प्रेम से देखती रही। मानो कहने की कोशिश में हो- हाँ मेरा ईश्वर और मानवता पर भरोसा पूरी तरह टूटा नहीं है। हम बार-बार जेल जाते। दिल की भाषा में बात करते। अब भी उसकी आँखों में आँसू होते पर ये आँसू खुशी के होते। धीरे-धीरे किरदेई सामान्य होती गई। वो मुझे देख मुस्कराहट के साथ सलामी देना सीख गई थी। कभी मेरा हाथ पकड़ जोर से रोती पर अब ये आँसू भरोसे के थे। वह खुश रहने लगी थी। अब वो नियमित खाना खाती। जेल में बंदी रक्षक प्रेमा देवी और कांस्टेबिल सविता ठाकुरी, मीना देवी, ऊषा चैहान, कमला शर्मा ने हमारी बड़ी मदद की। हमारी तेज तर्रार वकील साहिबा ने केस की तेजी से पैरवी हेतु हर कोशिश की। केस की कमजोर कड़ियों को पकड़ अब वो हारी बाजी को पलटने की पूरी तैयारी में लगी थीं।

पर हमारी कोशिशों को पलीता लगाने वालों की कमी नहीं थी। हम जितनी कोशिश उसे बरी करवाने की करते, दूसरा पक्ष उतनी ही ताकत से उसे अपराधी घोषित कराने में लगा था। सरकारी वकील और कई नामी गिरामी लोग बड़े डरे थे क्योंकि- दो महीने में ही मृदुला जैन की दमदार पैरवी ने केस का रुख बदल दिया था। कोर्ट में सबकी सहानुभूति इस लाचार औरत से थी। एक दिन मैंने सुना कि देहरादून से कोई एक्सपर्ट आ रहा है जो कोर्ट में इस बात की पुष्टि करेगा कि यह गूंगी बहरी है। इस केस का एक कमजोर पक्ष था कि किरदेई को गूंगा-बहरा बता इशारों में ही उसका अपराध स्वीकार करना बताया गया था। खैर हमने जो नहीं करना था वो भी किया। वह एक्सपर्ट अपनी ही रिपोर्ट की पुष्टि हेतु कभी कोर्ट में नहीं आया। क्योंकि उसे पता चल चुका था कि वह गूंगी-बहरी नहीं है। पर इसके बावजूद जेल के अंदर भी षडयंत्रकारी सक्रिय थे। पर उनसे ज्यादा सक्रिय था किरदेई का भगवान शिव पर- अटल और अखण्ड विश्वास। मुझे जेल से हर खबर पता चल जाती कि कौन सा नया शिगूफा होने वाला है। हम उसका तोड़ खोजते। यह लुकाछिपी का खेल चलता रहा।

अचानक एक दिन मेरी वकील का फोन आया कि कुसुम जल्दी कोर्ट आओ। किसी ने तुम्हारे नाम से एक पर्चा जेल में किरदेई को दिया है कि- यह कुसुम ने भेजा है। इसे कोर्ट में जज साहब को देना है। यह तुम्हारे छूटने का कागज है। तुम इस पर अंगूठा लगा दो। उस वक्त केस निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया था। किरदेई वह कागज किसी को देने को तैयार ना थी। जेल से ही किसी नेक बंदे ने यह खबर मेरी वकील तक पहुँचाई। आप हैरान होंगे जानकर कि उस पर लिखा था- मैं मुजरिम हूँ। मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ। भोली किरदेई इस विश्वास में कि कुसुम ने दिया है, उसे लेकर कोर्ट गई। बड़ी मुश्किल से उस दिन जज साहब के सामने ही वकील ने वह कागज खींचा। सो यह बला टली। यह बात किरदेई ने सुनीता की मदद से खुद कलक्टर और मुझे बताई। सच जानकर किरदेई फिर से बड़ी आहत और गुस्से में थी। उसने चार दिन खाना नहीं खाया। दयालु कलक्टर राधा रतूड़ी को जब यह पता चला तो वह खुद जेल गई। उसे समझा-बुझा अपने हाथों से उन्होंने किरदेई को चाय पिलाई।

इन उतार चढ़ावों के बीच 23 नवम्बर 2001 को किरदेई के भाग्य का फैसला हुआ। किरदेई को निर्दोष करार दिया गया। विद्वान न्यायाधीश माननीय श्री आर.पी.वर्मा जी ने अपने फैसले में कहा कि जाँच अधिकारियों ने एन.डी.पी.एस.एक्ट की धारा 42 व 50 का अनुपालन नहीं किया है। मुझे मृदुला दीदी ने फोन कर बुलाया पर पता नहीं उसके छूटने की खुशी मैंने अकेले ही सैलीब्रेट करना तय किया। मैं वैसे तो नई टिहरी में ही थी। मेरी वकील बता रही थी कि छूटने के बावजूद भी घंटों किरदेई कोर्ट से बाहर नहीं गई। वह मेरा इंतजार करती रही- अपनी टूटी फूटी हिंदी में कुचुम-कुचुम बोल। पर मुझ पर बहुत जिम्मेदारियां थीं। बहुत दिनों से हमारा कार्यालय का जरूरी काम छूटा था। सो आफिस के लोगों को भेजा। मेरी कलक्टर टिहरी डुबाने वाली थीं। सो मुझे अपने घर की लिपाई-पुताई और अपनी गुरू के माई बाड़ा के निर्माण काम के साथ चम्बा अस्पताल में भर्ती बीमार माँ को देखना था। किरदेई केस में मेरा कीमा बन गया था। मैंने बहुत नाराजगी झेली पर मैं संतुष्ट थी। मैंने गुरमीत से कहा छोड़ो किरदेई से मिलने से ज्यादा जरूरी है, उसे घर तक भेजने का इंतजाम कराना। सो पुलिस अधीक्षक अमित सिन्हा व जेलर से मिलकर उसे सरकारी अभिरक्षा में गाँव भिजवाने के प्रबंध में काफी वक्त निकल गया। वह छूट गई थी। यही हमारे लिए काफी था। हाँ मैं किरदेई को गाँव पहुँचाने वाली पुलिस टीम के सम्पर्क में रही।

बाद में किरदेई कथा-व्यथा को अखबारों और भारत सरकार के समाज कल्याण विभाग की पत्रिका ‘संदेश’ ने महिला सशक्तिकरण वर्ष की लीड स्टोरी के तौर पर छापा। कलक्टर राधा रतूड़ी और महिला समाख्या के लिए यह बड़ा सबक और सौगात थी। यह जीत ‘महिला ब्रिगेड’ के समन्वित प्रयासों का प्रतिफल था। हमने किरदेई की कथा-व्यथा का विश्लेषण अपने न्यूज लैटर रंतरैबार में किया। किरदेई पर एक शानदार फ्रलैश कार्ड सीरिज मेरी सहकर्मी अमीता रावत ने तैयार की जिसको महिला हिंसा पर संवाद हेतु गाँव-गाँव में प्रयोग किया गया।

किरदेई ने ठीक ही कहा था कि- औरतों के साथ लोग परदेश में ठगी करते हैं। कलक्टर राधा रतूड़ी का तबादला हो गया था। कलक्टर राधा रतूड़ी ने हमको ट्रीट देने का वादा किया था। पर मुझे आज तक वक्त ही नहीं मिला ट्रीट लेने का। सो वो आज भी हमारी कर्जदार हैं…। मैं सोचती हूँ ऐसा अन्याय फिर कभी किसी के साथ ना हो। गुमनाम किरदेई का छूटना मेरे जीवन का सबसे संतुष्टि वाला पल है। जहाँ हममें में से कोई भी एक दूसरे को नहीं जानता था। किसी को किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी। किसी को किसी से दुबारा नहीं मिलना था। सब कुछ नियति के तयशुदा कालचक्र की तरह खामोशी से चल रहा था। यही तो जीवन के सबसे सुंदर पल हैं ना! जहाँ हर कोई निस्वार्थ भाव से अपने हिस्से की आहुति महादेव के इस- ‘किरदेई यज्ञ’ में खामोशी से डाल उतनी ही तेजी से खामोश हो गया था। बस यूं ही किरदेई मेरे मन में कवीन्द्र रवीन्द्र की गीतांजली के सार- निर्भय मन, सर ऊंचा और श्रीकृष्ण के उपदेश- ‘जब-जब धर्म की हानि होगी मैं आऊंगा बार-बार आऊंगा….’ के व्यवहारिक बोध पर टिका कर अपने देश चली गई। मैं कभी नहीं भूलती हूँ किरदेई केस जीतने पर राधा दी की प्रतिक्रिया- कुसुम हमारा जी करता है हम यूं ही तुम्हारी लाजवाब टीम का मेम्बर बन एक साथ औरतों और कमजोर लोगों के लिए जमीनी काम करें। पर वो दिन फिर कभी नहीं आया।

सो कई कारणों से मैं किरदेई की अहसानमंद हूँ। उसको शुक्रिया बोलने को मेरे पास ना कोई शब्द हैं और ना कोई भाव ही…। परदेशी किरदेई मेरे मन के कोने में कहीं चुपचाप एक बुझी चिंगारी की तरह जीवन का कोई नया सबक सिखाने को बारूद की तरह बैठी है, महिला सशत्तिकरण पर अनुत्तरित इन सवालों के साथ- कि आखिर कब तक असली दोषी के बजाय निर्दोष लोग कानूनी प्रक्रियों का शिकार होंगे? किरदेई को तो दैवीय अनुकम्पा ने बेगुनाह साबित किया पर यहाँ सवाल किरदेई का नहीं, बल्कि एक साफ सुथरी चौकस व्यवस्था के ईमानदार क्रियान्वयन का है? जहाँ कोई और बेगुनाह किरदेई किसी जुल्म का शिकार ना हो? और किरदेई जैसों की जेल प्रताड़ना का हिसाब कौन देगा?