दोनों धुर्रियों की बेमिसाल नागपुर प्रस्तुति भारत के लिए शदियों तक सीख बनेगी

हरीश मैखुरी
नागपुर मुख्यालय के दीक्षांत समारोह में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को मुख्य अतिथि के रूप में सम्मानित करने के साथ ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि हमें महान व्यक्तियों से जो “पाथेय” मिलता है हम उसे गृहण करते हैं। दोनों धुर्रियों की यह बेमिसाल प्रस्तुति भारत के लिए शदियों तक सीख बनेगी। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: ये दोनों सनातन धर्म के आधार वाक्य हैं। संघचालकों के भाषणों में अक्सर ये दोनों वाक्य सुनने को मिलते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी ने संसद में कई बार इन दोनों वाक्यों की व्याख्या की। लेकिन दस साल तक प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह और राहुल गांधी ने कभी इन वाक्यों का जिक्र नहीं किया। परन्तु प्रणब मुखर्जी इन दोनों वाक्यों को सर्वपल्ली राधाकृष्णन से जोड़ कर अपने संबोधन में कहा कि भारत के समाज में यदि कहीं अंतर नजर आता भी है तो वो केवल उपरी तौर पर ही है, वास्तव में तो भारत एक विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई हैं जो एक सर्वनिष्ठ इतिहास, समान साहित्य और समान सभ्यता से जुड़ा हैं। भारत एक सार्वभौम संस्कृति का घर द्वार है। अब ये इतिहास तो प्राचीन इतिहास ही है,ये साहित्य रामायण, महाभारत, वेद और पुराण ही हैं।और जो सभ्यता है उसे भारतीयता कहें या सनातन बात एक ही है।
 हालांकि प्रणब मुखर्जी ने युगयुगीन भारतीय इतिहास को 5000 साल पुराना बताते हुए 2500 साल पुराने स्टेट का उल्लेख भी किया. इस दौरान न तो संविधान था, न ही एक झंडा था, बावजूद इसके एक विशाल आर्यावर्त था जिसे हम भारत वर्ष कहते हैं तब भी था, एक महान राष्ट्रीय अहिंसक युगयुगीन अनुभव जन्य  संस्कृति थी। प्रकृति के साथ गहरा तादात्म्य था सह अस्तित्व था। नेहरू की डिस्कवरी आफ इंडिया में भी ये सब उद्धरित किया गया है। भारतीय सभ्यता की आत्मा हमारे मूल संविधान में भी अभिव्यक्त है। यही समझाने के लिए प्रणब मुखर्जी ने कहा कि हमारे राष्ट्रवाद का प्रवाह संविधान से होना चाहिए. भले कांग्रेस से नाता निभाते हुए दादा ने अपने भाषण में संघ के बारे में एक शब्द नहीं कहा लेकिन विजिटर्स बुक में डॉ. हेडगेवार को भारत का सपूत बताते ही प्रणब दा ने कांग्रेस को संघ की लाठी से ऐसा पाठ पढ़ाया कि सदियों तक सीख याद रहेगी. और सबसे बड़ी बात दोनों विचार प्रमुखों ने भारत के लिए चिंतन का विषय दिया पर आलोचकों को मौका और मशाला नहीं। यही होता है पाथेय अर्थात् सन्मार्ग  ।