शहरों में मार्गों पर अनियंत्रित जल जमाव और धरती पर तेजी से घटता भूजल स्तर है आने वाले समय की जानलेवा चुनौती

(शहरी क्षेत्रों में अनियमित जलापूर्ति और यदा-कदा खासकर यत्र तत्र अनियंत्रित जल जमाव के चलते शहरवासियों को तो पता नहीं चलता कि मनुुष्य ने धरती के नीचे से हर दिन कितना जल नलकूप और हैंडपंप के माध्यम से चूस लिया है। कारवास, कसाई खाने और फैैैक्टरियां तो भारी मात्रा में धरती का भू जल चूसने के साथ साथ उसे जहरीला बना कर नालियां में डाल कर प्रदूषित भी करते हैं। क्योंकि हमने धरती के ऊपरी की सतह को अधिकांशतया डामर और सीमेंट से आच्छादित कर दिया है, इसलिए धरती के नीचे पानी के समाने की दर भी कम हुई है। इस कारण एक दिन ऐसा आने वाला है कि बेतहाशा पानी शोख लिए जाने के कुछ कि समूची धरती के नीचे का जल सूख जाएगा। भूजल मीठेे पानी  के स्रोत के रूप में प्राकृतिक संसाधन हैं। मानव के लिये जल की प्राप्ति का एक प्रमुख स्रोत भूजल के जलभरे अंग्रेजी: Aquifers) हैं। पिछले 10 – 15 सालों में अनियंत्रित रूप से खुदे नलकूप और हैंडपंपों के चलते धरती का पानी तेजी से चूस लिया गया है। अस्तु शीध्र ही एक दिन ऐसा आने वाला है कि धरती का जलस्तर एकदम से घट जाएगा और पेड़ों की जड़ों को पानी नहीं मिलेगा उस दिन पेड़ तेजी से धरती के पेड़ सूखने लगेंगे और ऑक्सीजन समाप्त हो जाएगा तो आक्सीजन के अभाव में मनुष्य के साथ ही सभी प्राणियों की उस दिन मृत्यु सुनिश्चित है। इसी तथ्य की ओर इंगित करते हुए इंजीनियर विनोद नौटियाल का आलेख आपके लिए प्रस्तुत है – डॉ हरीश मैखुरी, प्रधान संपादक, ब्रेकिंग उत्तराखंड डाट काम) 

आलेख :- इं. वी.पी. नौटियाल 

*_शहरी भागों में मार्गों पर बढ़ता जलभराव एवं घटता भूजल स्तर_*

आबादी वाले भागों में बरसात में जलभराव की समस्या धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है , इसके विपरीत भूजल स्तर धीरे-धीरे घटता ही जा रहा है। इन दोनों घटनाओं का आपस में सीधा सीधा संबंध है ।
उदाहरण के तौर पर अगर हम देहरादून शहर को ही लें तो राजधानी बनने के बाद दोनों समस्याएं काफी हद तक बढ़ी है और बढ़ती ही चली जा रही हैं। राजधानी बनने से पूर्व जब देहरादून पर जनसंख्या का दबाव कम था तो बड़े बड़े भूभाग में एक एक भवन या कोठी बनी होती थी, धीरे-धीरे इस शहर पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता गया और जमीनों की कीमत आसमान छूने लगी।
हर व्यक्ति का एक सपना है कि देहरादून में एक छोटा ही सही किंतु अपना घर होना चाहिए, इससे भवनों का निर्माण सौ- सौ/ डेढ़ -डेढ़ सौ और 200 -200 वर्ग मीटर के छोटे-छोटे प्लॉट्स में होने लगा , जो निरंतर जारी है।
जहां पहले बड़े-बड़े प्लॉट्स में 2000 से 4000 वर्ग मीटर में एक भवन होता था जिसमें तीन चौथाई भाग में जमीन कच्ची होती थी व उन पर फलदार एवं छायादार वृक्ष लगे होते थे, जिससे इस पूरे प्लाट का बरसात का सारा पानी प्लाट के बगीचे में या कच्चे भाग में ही समा जाता था ।
इसके विपरीत वर्तमान में सौ, डेढ़ सौ या 200 वर्ग मीटर में बन रहे भवनों में खाली कच्ची जगह नाम मात्र को ही देखने को मिल सकती है।
इससे पूरे प्लाट अथवा भवन का बरसाती पानी सारा का सारा बाहर सड़क पर आ रहा है ।
दूसरी ओर पहले सड़कों की पटरियां (Shoulders) कच्ची होती थी ।
यातायात के दबाव के बढ़ते सड़कों का चौड़ीकरण होता गया और सड़क के दोनों ओर की पटरियों को नाली तक पक्का कर दिया गया ।
इस प्रकार यदि हम गौर करें तो शहर का अधिकांश भाग हमने कंक्रीट या बिटूमिन रोड से सील कर दिया है ।
पहले जो नालियां कच्ची हुआ करती थी उनसे पानी की निकासी के साथ-साथ भूजल स्तर को भी जल मिलता रहता था वह भी घरों के गंदे पानी एवं गंदगी के कारण धीरे धीरे पक्की कर दी गई हैं सड़क के निर्माण में सड़क की मध्य रेखा
(center line),
सड़क के दोनों किनारों से थोड़ा ऊंची रखी जाती है जिसे कैंबर (Camber) कहते हैं, इससे सड़क पर पड़ने वाला बरसात का पानी बह कर सड़क के दोनों ओर बनी नालियों में चला जाए।
इन नालियों की जल वहन क्षमता सामान्य तौर पर सड़क की सतह से आने वाले पानी के अनुसार तथा इन सड़कों पर मिल रही अन्य छोटी सड़कों की नालियों से आने वाले बरसाती पानी के अनुसार ही होती हैं।
आवास विभाग उत्तराखंड शासन द्वारा प्रख्यापित भवन निर्माण एवं विकास उपविधि / विनियम 2011 में स्पष्ट तौर पर निर्देश है कि शहर में किसी भी भवन, जिसका भू आच्छादन 125 वर्ग मीटर या अधिक हो ,
का मानचित्र बिना रेन वाटर हार्वेस्टिंग (Rain water harvesting)
के स्वीकृत नहीं किया जाएगा अर्थात नवनिर्मित भवन में एक रेन वाटर हार्वेस्टिंग पिट (Rain water harvesting pit) बनाना अनिवार्य है तथा 400 वर्ग मीटर से अधिक के भूखंड पर रेन वाटर हार्वेस्टिंग पिट के साथ-साथ रेन वाटर रिचार्ज पिट (Rain Water Recharge Pit) बनाना भी अनिवार्य है।
इसी उपविधि / विनियम में सामान्य प्रावधानों में यह भी अपेक्षित है कि मैदानी क्षेत्रों में सड़कों के किनारे यथासंभव कच्चे रखे जाएंगे अथवा ब्रिक ऑन एज या लूज स्टोन पवेमेंट का प्रावधान किया जाएगा ताकि ग्राउंड वाटर की अधिक से अधिक रिचार्जिंग संभव हो सके ।
वर्तमान में अधिकांश मार्गो की पटरियों का ढाल नाली की ओर न होकर सड़क के पक्के किनारों की ओर बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जो कि नियमानुसार गलत है अधिकांश मार्गो पर साइड ड्रेन होने के बावजूद भी कच्ची अथवा पक्की पटरियां ऊंची होने के कारण मार्ग की पक्की सतह का पानी, नाली में जाने के बजाय पक्की सतह के किनारों पर ही रुक कर मार्ग को क्षतिग्रस्त कर रहा है। इस प्रकार बरसात का पानी नाली में न जाकर सारा का सारा सड़क की सतह पर एकत्र हो जाता है।
जिससे बरसात में जहां यातायात को अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है वहीं पक्की सड़क की सतह भी शीघ्र ही क्षतिग्रस्त होकर बड़े-बड़े गड्ढों का रूप ले लेती है। जिससे दुर्घटना के साथ-साथ शासन का लाखों रुपया मरम्मत में व्यय हो जाता है ।
यदि ईमानदारी से इन मानकों का पालन किया जाए तो शहर में जलभराव की समस्या का काफी हद तक स्वयं ही हल हो जाएगा एवं शासन पर पड़ने वाला अनावश्यक व्यय भी बचेगा।
इस प्रकार हम सभी का कर्तव्य बन जाता है कि शहरों को जलभराव से बचाने के लिए अपना यथासंभव योगदान दें।
किसी भी आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए जनसहयोग सबसे बड़ी कड़ी है। ये चुनौती लगभग सभी शहरों की है। 

इं. वी.पी. नौटियाल 

संप्रति :- सहायक अभियंता ,
निर्माण खंड,
लोनिवि, देहरादून।