मजहब को आज के फिल्मी चश्मे से देखना इतिहास के साथ ना इंसाफी

~ताबिश सिद्दीकी
हम और आप आजकल इतिहास को या तो बॉलीवुड की नज़र से देखते हैं या हॉलीवुड की.. मैंने ईरानी  डायरेक्टर “माजिद मजीदी” की फ़िल्म “मुहम्मद” देखी.. जिसमे रहमान ने संगीत दिया है.. जब वो मूवी मैं देख रहा था तो मैं सोच रहा था कि आख़िर मजीदी किस दुनिया की चीजें दिखा रहे हैं.. पूरी फ़िल्म में मुहम्मद साहब और उनके आसपास के लोगों को ऐसा दैवीय दिखाया जा रहा था कि वो इस दुनिया का तो लग ही नहीं रहा था.. कपड़े ऐसे उजले कि जैसे आपने कभी देखे न हों.. लोग ऐसे सुंदर कि आप देखते ही रह जाएँ.. सारा माहौल ऐसा सुंदर कि क्या कहा जाए
मैंने जब इस्लाम के इतिहास में ये लिखा कि शुरूआती दिनों में काबा की ऊँचाई इतनी थी कि एक बकरी उसकी दीवार फांद कर अंदर घुस जाती थी.. इस छोटे से पॉइंट पर कई लोग भड़क गए.. मगर इतिहास का जब उन्हें रिफरेन्स दिया तब वो चुप हो गए.. दरअसल इस वक़्त जो काबा आप देख रहे हैं उसका पुराने काबा से कोई मेल ही नहीं है..  और इस वक़्त जो आप इस्लाम के “महापुरुषों” की बात करते हैं, आप जैसे उनकी कल्पना करते हैं वो असल में आपकी कल्पना के किसी एक हिस्से में भी फ़िट नहीं हो पायेंगे
एक फोटो मैं पोस्ट कर रहा हूँ आप उसे देखिये.. ये फोटो अरब के बनू रशीद क़बीले के मर्दों की है.. ये फ़ोटो 1932 में खींची गयी थी.. बनू रशीद क़बीला अरब के मक्का और मदीना के आसपास रहता था.. इनके बीच में एक अंग्रेज़ खड़ा है जो दूर से ही सभ्य दिख रहा है 
ये फ़ोटो मैं इसलिए डाल रहा हूँ ताकि आप ये समझ सकें कि मज़हब के नाम पर आप जब किसी चीज़ को  “महिमामंडित” करना शुरू करते हैं तो बात कब कहाँ से कहाँ चली जाती है इसे आप समझ ही नहीं पाते हैं.. सिर्फ़ 87 साल पुरानी फ़ोटो है.. जिस से आप 1400 साल पहले उस समय की भी झलक पा सकते हैं जब इस्लाम आया होगा.. इसी तरह के क़बीले वाले रहे होंगे.. वो इनसे भी सैकड़ों साल पुराने थे ओ उनका रहन सहन और इंसानियत समझने की क्षमता कितनी रही होगी ये आपको सोचना होगा 
ये फोटो देखिये और सोचिये और समझिये इस बात को कि चौदह सौ साल पहले इसी तरह के अरबी क़बीले के लोग थे जो “इस्लाम धर्म” बना रहे थे.. हराम हलाल बना रहे थे और काफ़िर और मुशरिक वाली सोच तैयार कर रहे थे.. वो लोग इस फोटो में दिखने वाले लोगों से भी सैकड़ों साल पुराने थे.. जो कड़कती बिजली को ख़ुदा का प्रकोप समझ के घरों में छिप जाते थे.. जो रेगिस्तान में उड़ते तूफ़ान को जिन्न की बारात समझते थे.. और इन्हीं जैसे लोगों ने हदीसें बनायीं  जो कि “मुहं ज़बानी” या “श्रुति ग्रन्थ” हैं  जिस पर आज का निन्नाबे प्रतिशत इस्लाम टिका  हुवा है.. सोचिये ऐसे लोग अगर अभी आपके घर आ जाएँ तो शायद आप उन्हें अपने यहाँ बिठाना भी पसंद नहीं करेंगे मगर आप अपने बच्चों को इन लोगों के रहन सहन की शिक्षा देते हैं 
महिमामंडन ठीक है.. मगर इतिहास को उसी दौर में जा कर सोचने और समझने की कोशिश किया कीजिये.. सिर्फ सौ साल पहले के भारतीयों को देख लीजिए ये दर्शन आपकी धार्मिक बेवकूफी और धर्म के नाम पर मर मिटने की प्रवृत्ति पर लगाम लगा देगा और आप ये समझ पायेंगे कि हम उन लोगों से कहीं उन्नत और समझदार प्रजाति हैं और हमें पुराने लोगों की बेवकूफी भरी बातों को मानना तो दूर बल्कि सिरे से नकारना है (लेखक के अपने विचार हैं-सं.)