जहां साक्षात् कालिका आती है रोज दर्शन देने

*राजेन्द्रपन्त‘रमाकान्त’*
*काल्यास्तु पर नास्ति दिवि देह च पावनभ्?*
 काली के अलावा पवित्र करने वाला कोई मन्त्र न तो पृथ्वी पर है और न ही स्वर्ग पर है। काली शब्द ही सर्व पाप नाशनी है। 
जब-जब देवताओं पर घोर संकट आया उन्होंने मां काली की ही पूजा की। इसी तरह का मूल-भूत प्रसंग ‘‘दुर्गासप्तशती’’ में देखने का मिलता है –
प्रलयकाल में सम्पूर्ण संसार के जलमग्न हो जाने पर भगवान विष्णु शेष शय्या पर योग निद्रा में सो रहे थे, उसी समय भगवान के कर्णकीट से उत्पन्न मधु-कैटभ नामक दो राक्षस उत्पन्न हो गये। वे ब्रह्मको मारने के लिये उद्यत हो गये। उनकी भीषण शक्ति को देखकर ब्रह्मा जी ‘‘मां भगवती काली मां’’ की स्तुति करने लगे- हे काली मां महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति महामोह रूपा, महादेवी तथा महेश्वरी भी तुम ही हो, तीनों गुण तुमसे ही उत्पन्न होते हैं। तुम ही भंयकर कालरात्रि महारात्रि तथा मोहरात्रि भी हो। हे देवि! तुम ही खड्ग और शूल को धारण करने वाली घोर रूपा हो, तुम गदा, चक्र औ धनुष धारिणी तथा वाण भुशुण्डी परिध नामक अस्त्रों से युक्त हो तुम सौम्य ही नहीं सौम्यतर हो। संसार में जितने भी पदार्थ हैं उन सबमें आप सबसे सुंदर हो, जहां कीं सत-असत तथा उन पदार्थों की शक्ति है, वह सब तुम ही हो। इस स्थिति में तुम्हारी क्या स्तुति की जा सकती है। हे मां इन दोनों अति दुघर्ष मधु कैटभ को मोह में डालकर जगदीश्वर विष्णु को जाग्रत करो और इन असुरों को मारने की बुद्वि प्रदान करो। हमारी रक्षा करो, हमारे सारे मनोरथ पूर्ण करो।
  इस प्रकार इस तरह की अराधना करने पर मां काली प्रत्यक्ष रूप से सामने खड़ी हो गयी। मां काली ने राक्षसों की बुद्वि मोहित कर दी। जिससे वे अहंकार में आकर कहने लगे – हम तुम्हारी युद्व कला से खुश हुए हैं। मनचाहा वर मांगों भगवान कहने लगे- यदि तुम वर देना ही चाहते हो मुझे यह वर दीजिये कि तुम दोनों मेरे द्वारा ही मारे जाय। मधु कैटभ ने तथास्तु कहकर यह कहा जहां पृथ्वी जल से ढकी हो वहां हमें मत मारना। अन्त में भगवान ने उनके सिरों को अपनी जंघाओं पर रखकर चक्र से काट डाला। इस प्रकार देवकार्य सिद्व करने के लिये उस सच्चिदानन्द स्वरूपपिणी चित्त शक्ति ने महाकाली का रूप धारण किया।उत्तराखण्ड़ का गंगावली क्षेत्र जो कि हिमालय का सबसे अद्भुत क्षेत्र है।यहां माँ काली का साक्षात् वास है,सदा जाग्रत रहते हुए माँ काली की विश्राम लीला का केन्द्र भी यही है।उत्तर भारत का प्रसिद्व रामेश्वर तीर्थ भी घाट पनार के पास गंगावली की महान् आध्यात्मिक धरोहर है।इसी स्थान पर प्रभु श्री राम ने यज्ञ कर शिवलिंग स्थापित किया और माँ काली का स्मरण कर अपनी नरलीला को विराम दिया स्कंदपुराण में इस विषय पर विस्तार के साथ पढ़ा जा सकता है।राम नाम व माँ का स्मरण तो सदैव ही फलदायी है।किन्तु दीपपर्व पर कालिका के स्मरण से सहज में ही राम की कृपा प्राप्त होती है।अौर रामेश्वर के पूजन से काली कृपा सदा रहती है।रामायण में भी बड़े सुन्दर शब्दों में शक्ति की महत्ता को प्रकट करते हुए कहा गया है* *?देवी पूजि पद कमल तुम्हारे।सुर नर मुनि सब होय सुखारे?*।।प्रसंगवश शैलपर्वतवासिनी हाटकाली पर संक्षिप्त आलेख
जनपद मुख्यालय से लगभग 77 किमी0 की दूरी पर मन को लुभाने वाली नगरी गंगोलीहाट है। गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के मध्य यहां से लगभग 1 किमी0 दूरी पर अत्यन्त ही प्राचीन माँ भगवती महाकाली का अद्भुत मंदिर को चाहे धार्मिक दृष्टि से देखें या पौराणिक दृष्टि से हर स्थिति में यह आगन्तुकों का मन मोहने में पूर्णतया सक्षम है।
उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का केन्द्र महाकाली मंदिर अनेक रहस्यमयी कथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। पवित्र पहाड़ों की गोद में बसा हरे भरे वृक्षों के मध्य स्थित यह मंदिर भक्तजनों के लिये जगत माता की ओर से अनुपम भेंट है। कहा जाता है कि जो भी भक्तजन श्रद्वापूर्वक महाकाली के चरणों में आराधना के श्रद्वापुष्प अर्पित करता है उसके रोग, शोक, दरिद्रता एवं महान विपदाओं का हरण हो जाता है व अतुल ऐश्वर्य एवं सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। भक्तजन बताते हैं यहां श्रद्वा एवं विनयता से की गयी पूजा का विशेष महात्म्य है। इसलिये वर्ष भर यहां बड़ी संख्या में श्रद्वालु पहुचते हैं तथा बड़े ही भक्ति भाव से बताते हैं कि किस प्रकार माता महाकालिका ने उनकी मनौती पूर्ण की देशी विदेशी पर्यटक इस क्षेत्र में आकर माँ काली के दर्शन करते हैं महाकालिका की अलौकिक महिमा के पास आकर ही जगतगुरू शंकराचार्य ने स्वयं को धन्य माना तथा माँ के प्रति अपनी आस्था पुंज बिखेरते हुये उत्तराखण्ड क्षेत्र में अनेक धर्म स्थलों पर श्रद्वा के पुष्प अर्पित किये जिनके प्रतीत चिन्ह आज भी जागेश्वर के मृत्युंजय महादेव मंदिर, पाताल भुवनेश्वर की रौद्र शक्ति पर व कालिका मंदिर के अलावा अन्य कई पौराणिक मंदिरों एवं गुफाओं में देखे जा सकते हैैं। उत्तराखण्ड के प्रसिद्व कवि लोकरत्न गुमानी ने भी महाकालिका मंदिर के प्रति अपनी कविताओं को समर्पित  करते हुये माँ भगवती को संुदरता व शालीनता की मूर्ति माना है। अपने ‘कालिकाष्टक’ में पंडित गुमानी ने यह भी कहा है कि यह विशेष परिस्थितियों में गंभीर व भयानक रूप धरण करती है। श्री महाकाली का यह मंदिर उत्तराखण्ड के लोगों की आस्था का प्रतीक है। प्रातःकाल मंदिर में जब महाकाली की गूंज, शंख, रूदन और नगाड़ों की रहस्यमयी आवाजें निकलती हैं, तत्पश्चात यहां पर भक्तजनों का ताता लगना शुरू होता है। सायंकालीन आरती का दृश्य भी अत्यधिक मन मोहक रहता है। जिसे देखकर ऐसा मालूक पड़ता है।मानो घरती पर र्स्वग उतर आया हो

सुंदरता से भरपूर इस मंदिर के एक ओर हरा भरा देवदार का आच्छादित घना जंगल है। तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की हरियाली भरी घाटियां विशेष रूप से नवरात्रियों व चैत्र मास की अष्टमी को महाकाली भक्तों का  यहां पर विशाल ताता लगा रहता है। इन पर्वों को उत्तराखण्ड सहित देश के अनेक भागों के भक्तजन यहां महाकाली के दर्शनार्थ आते हैं, ये ही ऐसे पर्व हैं जब क्षेत्र के प्रत्येक गांव से कामकाजी महिलाओं को अपने नन्हें-मुन्नें बच्चों के साथ गंगोलीहाट बाजार जिन्हें ग्रामीण महिलायें ‘हाट कौतिक’ के नाम से पुकारती हैं, आने का मौका मिलता है और वे सर्वप्रथम कालिका के दरबार में माथा टेककर चरणामृत लेकर, बाजार परिसर व हाट से खरीददारी करती हैं। मंदिर परिसर में भजन-कीर्तन व भण्डारा के लिये हाल बने हुये हैं।
आदि शक्ति महाकाली का यह मंदिर ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। महाकाली ने महाकाल का भयंकर रूप धरण कर देवदार के वृक्ष में चढ़कर जागनाथ व भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगानी शुरू कर दी। कहते हैं यह आवाज जिस किसी के कान में पड़ती थी वह व्यक्ति सीधे प्रातः तक यमलोक पहुंच चुका होता था।
छठी शताब्दी में आदि जगत गुरू शंकराचार्य जब अपने भारत भ्रमण के दौरान जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन जब वे यहां पहुंचे तो नरबलि की बात सुनकर उद्वेलित शंकराचार्य ने इस दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और शक्ति के दर्शन करने से भी वे विमुख हो गये। लेकिन जब विश्राम के उपरान्त  शंकराचार्य ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर शक्ति परिसर में जाने की इच्छा प्रकट की तो मंदिर शक्ति स्थल पर पहुंचने से ही कुछ दूर पूर्व तक ही स्थित प्राकृतिक रूप से निर्मित गणेश मूर्ति से आगे वे नहीं बढ़ पाये और अचेत होकर इस स्थान पर गिर पड़े व कई दिनों तक यही पड़े रहे उनकी आवाज भी अब बंद हो चुकी थी। अपने अंहभाव व कटु वचन के लिये जगत गुरू शंकराचार्य को अब अत्यधिक पश्चाताप हो रहा था। पश्चाताप प्रकट करने व अन्तर्मन से माता से क्षमा याचना के पश्चात माँ भगवती की अलौकिक आभा का उन्हें आभास हुआ।
चेतन अवस्था में लौटने पर उन्होंने महाकाली से वरदान स्वरूप मंत्र शक्ति व योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किये और महाकाली के रौद्रमय रूप को शांत किया तथा मंत्रोचार के द्वारा लोहे के सात बड़े-बड़े भदेलों से षक्ति को कीलनं कर प्रतिष्ठिापित किया। अष्टदल व कमल से मढ़वायी गयी इस शक्ति की ही पूजा अर्चना वर्तमान समय में यहां पर होती है। पौराणिक काल में प्रचलित नरबली के स्थान पर पशु बली की प्रथा आज भी प्रचलित है।
चमत्कारों से भरे इस महामाया भगवती के दरबार में सहस्त्र चण्ड़ी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंड़ी महायज्ञ, अष्टबलि अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। यही एक ऐसा दरबार है। जहां अमावस्या हो चाहे पूर्णिमा सब दिन हवन यज्ञ आयोजित होते हैं। ब्राह्मण समुदाय बलि प्रथा से दूर रहकर हवन पूजा में विश्वास रखता है। जब मंदिर में सतचण्डी महायज्ञ आयोजित होते हैं। तब कालिका दरबार की आभा देखने लायक होती है। 108 ब्राह्मणों द्वारा प्रतिदिन शक्ति पाठ की गूंज से यूं मालूम पड़ता है। मानों समस्त देवता शैल पर्वत पर आकर रहने लगे हों। चातुरमास में आयोजित होने वाला तस्मै ;खीर भोग रावल उपजाति के वारीदारों द्वारा लगाया जाता है। इस अवसर पर मंदिर में अधर््ारात्रि में भी भोग लगाने की प्रथा है। यह भोग चैत्र और अश्विन मास की महाष्टमी को पिपलेत गांव के पंत उपजाति के ब्राह्मणों द्वारा लगाया जाता है।
इस कालिका मंदिर के पुजारी स्थानीय गांव निवासी रावल उपजाति के लोग हैं। जो क्रमवार से उपस्थिति देकर बारीदारी का हक निभाते हैं। मंदिर में पूजा अर्चना का कार्यक्रम सम्पन्न कराने के लिये अर्ग्रोन गांव के पंत लोग उपस्थित रहते हैं। उनकी अनुपस्थित में यह दायित्व हाट गांव के पाण्डेय निभाते हैं।
सरयू एवं रामगंगा के मध्य गंगावली की सुनहरी घाटी में स्थित भगवती के इस आराध्य स्थल की बनावट त्रिभुजाकार बतायी जाती है और यही त्रिभुज तंत्र शास्त्र के अनुसार माता का साक्षात् यंत्र है। यहां धनहीन धन की इच्छा से, पुत्रहीन पुत्र की इच्छा से, सम्पत्तिहीन सम्पत्ति की इच्छा से सांसारिक मायाजाल से विरक्त लोग मुक्ति की इच्छा से पधारते हैं व मनोकामना पूर्ण पाते हैं।
इस मंदिर के निर्माण की कथा भी बड़ी चमत्कारिक रही है। महामाया की प्रेरणा से प्रयाग में होने वाले कुम्भ मेले में से नागा पंत के महात्मा जंगम बाबा जिन्हें स्वप्न में कई बार इस शक्ति पीठ के दर्शन होते थे। वे रूद्र दन्त पंत के साथ यहां आकर भगवती के लिये मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया। परन्तु उनके आगे समस्या आन पड़ी मंदिर निर्माण के लिये पत्थरों की। इसी चिंता में एक रात्रि वे अपने शिष्यों के साथ अपनी ध्ूानी के पास बैठकर विचार कर रहे थे। कोई रास्ता नजर न आने पर थके व निढाल बाबा सोचते-सोचते शिष्यों सहित गहरी निद्रा में सो गये तथा स्वप्न में उन्हें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीन कन्याओं के दर्शन हुये उन्होंने दिव्य मुस्कान के साथ बाबा को स्वप्न में ही अपने साथ उस स्थान पर ले गयी जहां पत्थरों का खजाना था। यह स्थान महाकाली मंदिर के निकट देवदार वृक्षों के बीच घना वन था। इस स्वप्न को देखते ही बाबा की नींद भंग हुई उन्होंने सभी शिष्यों को जगाया स्वप्न का वर्णन कर रातों-रात चीड़ की लकड़ी की मशालें तैयार की तथा पूरा शिष्य समुदाय उस स्थान की ओर चल पड़ा जिसे बाबा ने स्वप्न में देखा था। वहां पहुंचकर रात्रि में ही खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया थोड़ी ही खुदान के पश्चात संगमरमर से भी बेहतर पत्थरों की खान निकल आयी। कहते हैं कि पूरा मंदिर, भोग भवन, शिवमंदिर, धर्मशाला एवं मंदिर परिसर का व प्रवेश द्वारों का निर्माण होने के बाद पत्थर की खान स्वतः ही समाप्त हो गयी। आश्चर्य की बात तो यह है  इस खान में नौ फिट से भी लम्बे तरासे हुए पत्थर मिले। कितना आलौकिक चमत्कार था यह माता काली का जिस चमत्कार ने सहजता के साथ इस समस्या का निदान करवा दिया। महान योगी जंगम बाबा ने एक सौ बीस वर्ष की आयु में शरीर का त्याग किया।
बीसवी सदी के चौथे दशक में गोविन्द दास नामक महासंत ने यहां कालिका की आराधना की आजादी से पूर्व यह दो नदियों के बीच का प्रदेश गंगावली मोटर यातायात से विहीन था। पैदल यात्रा से यात्री यहां की नैसर्गिक सौंदर्य का आनन्द लेते थे। शक्ति पीठ में सहत्रघट का जब कभी पूर्व में आयोजन होता था। तो सरयू व रामगंगा नदी से भक्तजन जयकारा ध्ुान के साथ गागरों में पानी लाते थे। इसके अलावा नौलों,जल धारों से भी ताबें की गंगरियों में जल लाकर के शक्तिपीठ में जलाभिषेक किया जाता था। पूरे दिन चलने वाले इस कार्यक्रम में गंगावली की वादियों का नजारा दिव्य लोक सा मालूम पड़ता था। सहत्रघट आयोजन तब किया जाता था, जब लम्बे समय से वर्षा नहीं होती थी। दिन भर यह कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात सायंकाल के समय घनघोर मेद्य ललाट भरे बादल जो रौद्र रूप का प्रतिबिम्ब मालूम पड़ता था। अपने साथ वर्षा की अनुपम छटा लाता था। विज्ञान के युग में भी इस परम सत्य का नजारा सहत्रघट आयोजनों के अवसर पर यहां देखा जा सकता है।
एक अन्य चमत्कार के अनुसार विश्व युद्व के दौरान जब भारतीय सैनिकों से खचाखच भरा जहाज  समुद्र में डूबने लगा तो उसी जहाज में इस क्षेत्र के उपस्थित एक सैनिक ने माँ का स्मरण कर डूबते जहाज को इस तरह से उबरवाया कि समुद्र की वादियों व जहाज जय श्री महाकाली गंगोलीहाट वाली की जय-जयकार से गूंज उठा तभी से भारतीय सैनिकों की इस मन्दिर के प्रति विशेष आस्था है। 38,937 हैक्टेयर भौगोलिक क्षेत्रफल में फैलै विकास खण्ड गंगोलीहाट के आसपास शिवालयों एवं देवी शक्तिपीठों की भरमार है जिनमें चामुण्डा मंदिर, लमकेश्वर, महादेव मंदिर, रामेश्वर मंदिर, विष्णु मंदिर, गोदीगाड़ मंदिर के अलावा पाताल भुवनेश्वर, भोलेश्वर, शैलेश्वर, मर्णकेश्वर, लमकेश्वर, हटकेश्वर, चमडुगरा आदि प्रसिद्व शिवालय हैं। बताते हैं कि गंगोलीहाट का काली मंदिर संस्कृति के महाकवि कालीदास की भी तपस्थली रही है। कालिदास के वंशज कौशल्य गोत्र के ब्राह्मण कैलाश यात्रा पथ में रहते हैं। इनके घरों में कालिदास के मेघदूत व रघुवंश की पाण्डुलिपियां मिलती हैं।
भवप्रीता कल्याण रूपा सत्यानंद स्वरूपिणी माता भगवती महाकालिका का यह दरबार अनगिनत, असंख्य अलौकिक दिव्य चमत्कारों से भरा पड़ा है। जिसका वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
महाकाली के संदर्भ में एक प्रसिद्व किवदन्ति है कि कालिका का जब रात में डोला चलता है तो इस डोले के साथ कालिका के गण ;आंण व बांण की सेना भी चलती हैं। कहते है यदि कोई व्यक्ति इस डोले को छू ले तो दिव्य वरदान का भागी बनता है। हाट गांव के चौध्रियों द्वारा महाकालिका को चढ़ायी गयी 22 नाली खेत में देवी का डोला चलने की बात कही जाती है। 
महाआरती के बाद शक्ति के पास महाकाली का विस्तर लगाया जाता है और प्रातः काल विस्तर यह दर्शाता है कि मानों यहां साक्षात् कालिका विश्राम करके गयी हों क्योंकि विस्तर में सलवटें पड़ी रहती हैं। कुछ बुर्जग बताते हैं पशु बलि महाकाली को नहीं दी जाती है। क्योंकि जगतमाता अपने पुत्रों का बलिदान नही लेती है। यह बलि कालिका के खास गण करतु को प्रदान की जाती है। तामानौली के औघड़ बाबा भी कालिका के अन्यष् भक्त रहे हैं।मॉं काली के प्रति उनके तमाम किस्से आज भी क्षेत्र में सुने जाते है भगवती महाकाली का यह दरबार असंख्य चमत्कार व किवदन्तियों से भरा पड़ा है

इस प्रकार शास्त्रों में मां काली के महत्व का विशेष रूप से वर्णन देखने को मिलता है। महाभारत का युद्व होने से पहले श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को मां काली की अराधना करने का मार्ग सुझाया। अर्जुन ने कठोर व्रत के नियम का पालन करते हुए मां काली की तपस्या की। मां अर्जुन की तपस्या से खुश होकर अर्जुन को विजयश्री का आशीर्वाद दिया। अर्जुन ने मन ही मन में सोचा कि मैं युद्व जीतने में मां के खप्पर को रक्त से भर दूंगा। महाभारत के युद्व होने से पहले श्री कृष्णभगवान ने अर्जुन को मां काली की अराधना करने का मार्ग सुझाया। अर्जुन ने कठोर व्रत के नियम का पालन करते हुए मां काली की तपस्या की। मां अर्जुन की तपस्या से खुश होकर अर्जुन को विजयश्री का आशीर्वाद दिया। अर्जुन ने मन ही मन में सोचा कि मैं युद्व जीतने में मां के खप्पर को रक्त से भर दूंगा। महाभारत के युद्व समाप्त होने पर श्री कृष्ण ने अर्जुन को मां काली के खप्पर को रक्त से भरने की बात याद दिलाई। अर्जुन अहंकार में आकर कई सेनाओं के रक्त से खप्पर को भरने लगा। लेकिन खप्पर में रक्त की एक बूंद भी नहीं गिरी। अर्जुन परेशान होने लगा। तब श्री कृष्ण ने कहा वत्स तुम्हारे अन्दर अंहकार आ गया है। तुम एक बार सच्ची निष्ठा समर्पण भाव से मां के खप्पर को स्पर्श करो। खप्पर अपने आप ही रक्त से भर जायेगा। अर्जुन ने जैसे ही निश्चल भाव और समर्पण के साथ खप्पर का स्पर्श किया। खप्पर रक्त से भर गया। यह देखकर श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को बताया कि अहंकार की स्थिति में मां बहुत दूर चली जाती है। मां की कृपा समर्पण सच्ची निष्ठा में बनी रहती है। मां अहंकार वाले भक्त की पूजा को नहीं  स्वीकारती है।* *जय माँ काली*