19 जनवरी का अर्थ तो मालूम है ना आपको ? लाखों हिन्दुओं को जन्नत से जुदा करने की दुर्दांत सच्चाई

19 जनवरी का अर्थ तो मालूम है ना आपको ?

✍️चरण सिंह केदारखण्डी

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आज 19 जनवरी है यानी दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में एक कश्मीर घाटी के मूल निवासियों का उनकी अपनी ही मिटटी से बेदख़ली का दिन…

अभी भी शीत का प्रकोप जारी है लेकिन यक़ीनन टेंटों में खानाबदोशों की तरह जीवन यापन करने वाले पंडितों को बाकी दिनों की तुलना में उन्नीस जनवरी ज़्यादा ठंडा, कठोर और भावनाशून्य दिन लगता होगा…बहुत सारी यादें , बहुत सारे दुः स्वप्न चलचित्र की तरह उस पीढ़ी के सामने धूमते होंगें जिसने सितंबर 1990 में पंडित टीका लाल टपलू का बेजान शरीर देखा होगा.. या बलात्कार के बाद बिजली के आरे से दो टुकड़ों में काट दी गई गिरिजा टिक्कू की चीखें सुनी होंगी…

कुछ युवा पंडितों को गुस्सा भी आता होगा कि बादामी बाग़ में भारतीय सेना की मौजूदगी के बावजूद कोई उनकी मदद के लिए क्यों नहीं आया ?

देश के गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने कुछ किया क्यों नहीं या कहीं सब कुछ उन्ही का किया धरा तो नहीं था !

मुफ़्ती के गृहमंत्री बनने के एक माह के भीतर 4 लाख पंडितों को बेघर होना पड़ा था… दिल्ली और घाटी दोनों पंडितों के लिए पराई हो गयी थी।
भारत की राजनैतिक पार्टियों के लिए पंडितों का पलायन कभी मुद्दा नहीं रहा… आपने सीताराम येचुरी को हुर्रियत की चौखट पर नाक रगड़ते और बेइज़्ज़त होकर लौटते देखा होगा लेकिन कभी पंडितों की किसी बस्ती में नहीं देखा होगा… बाकी दलों का भी यही हाल है। पंडितों की संख्या और राजनैतिक हैसियत ये नहीं कि वे किसी पार्टी या प्राइम टाइम की ख़बर का मुद्दा बन सकें…न उन्होंने कभी रेल की पटरियां उखाड़ी न सड़कों पर उत्पात मचाया…
अपने संस्कार और पांडित्य को बनाये रखा है…इतना जरूर है कि उनकी नयी पीढ़ी कभी The Garden of solitude नाम से डाक्यूमेंट्री बनाकर तो कभी राहुल पंडिता की तरह क़िताब लिखकर अपना दर्द बयां करती आई है…
यही पढ़े लिखे लोगों का तरीका है…

भारत की धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे का क़त्ल तो उसी दिन हो गया था मित्रो…हालाँकि पिछली 19 जनवरी और आज के बीच सिर्फ़ 370 के हटाये जाने का अंतर है जो कम से कम पंडितों के लिए बहुत बड़े सुकून का मामला है… लेकिन अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए इस कदम का भी विरोध किया गया…

आपको यह जानकर भी ताज़्जुब होगा कि पढ़े लिखे हिंदुओं की एक पूरी की पूरी मूर्ख जमात ऐसी भी है जिसे अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म की बात करना सांप्रदायिक लगता है और जो लंबे समय से कथित धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार बने रहने के चक्कर में अपने धर्म और संस्कृति की बार बार खिल्ली उड़ाते हैं…
अपनी मातृभूमि से बेघर होना किसी के लिए कितना तकलीफ़देह होता होगा इसे बिना ख़ुद बेघर हुए कभी नहीं जाना जा सकता…
पैराडाइस लॉस्ट में स्वर्ग से बेदख़ली के वक़्त मिल्टन का माउथपीस एक खूबसूरत लाइन बोलता है..

ईश्वर करे, पंडित जल्दी अपने घर जायें

(इतिहास में कश्मीर के हिन्दुओं को ‘पंडित’ प्रचारित करने के पीछे भी हिन्दुओं को जातियों में विभाजित करके प्रस्तुत करने की एक सोची समझी गहन शाजिस का हिस्सा रही है। ताकि हिन्दूओं पर हुए इस जुल्मो सितम को बाकी हिंदू अपने से ना जोड़ दें, उन्हें लगे ये पंडिताें की समस्या है वे निबटें। ये ठीक वैसे ही है जैसे पाकिस्तान में तो अहमदिया, बलूच, शिया फिरके अलग हैं और वहां के सुन्नी उन्हें आंख की किरकिरी समझते हैं लेकिन इधर भारत में सिया सुन्नी अहमदिया कुरैशी शेख मौलवी नाई कसाई बट राणा शाह सबके लिए एक ही शब्द कहा जाता है ‘मुस्लिम’… खैर सैक्युलर देश में कश्मीर के इस भीषण हिंसा की चर्चा आज क्रिकेट के जश्न में डूबे देश ने वैस उचित भी नहीं समझी,  माननीयों ने भी इस भीषण संहार की घटना को याद करने की आवश्यकता नहीं समझी, लेकिन यह चर्तित जघन्य हिंसा इतिहास में दर्ज है और देश के माथे पर लगा कलंक है-संपादक )