गोमय गणेश पूजा के विषय में ये लाभकारी तत्थ्य जानकर आश्चर्य चकित हो जायेंगे आप

*गणपति पूजन की वैदिक तत्त्व मीमांसा*

अक्षुण्णातीत काल से परम्परा द्वारा प्राप्त और अब तक अविकलित रूप में सुरक्षित समस्त शुभ वैदिक कर्मकाण्डों में सबसे पहले गणपति की पूजा की जाती है। यह गणपति देवता वेदों के ब्रह्मणस्पति बृहस्पति या अङ्गिरा नामक देवता का प्रतीक है। इसका स्पष्टीकरण वैदिक ब्रह्मणस्पति देवता का मन्त्र-
*”गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमस्तमम् ।*
*”ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ।।” ऋ० वे० २-२३-१*
देता है जिसको शुक्ल यजुर्वेद निम्न प्रकार के पाठ से देता है :-
*गणानां त्वा गणपतिं ᳪ हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपतिᳪ हवामहे ।*
*निधीनां त्वा निधीपति ᳪ हवामहे वसो मम ।*
*आऽहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥*
इन दोनों मन्त्रों का देवता ब्रह्मणस्पति है यह ऐ० ब्रा८ (१-२१) के उल्लेख
*’गणानान्त्वा गणपतिᳪ हवामहे इति ब्राह्मणस्पत्यं’*
से स्वयं स्पष्ट है । अब प्रश्न यह उठता है कि यह गणपति नामक ब्रह्मणस्पति देवता किन विशिष्ट गुणों या गणों का तत्त्व या देवता है ? उक्त प्रथम मन्त्र में इसे ‘ब्रह्मणां ज्येष्ठराज’ अर्थात् सब ब्रह्मों में ज्येष्ट और राजारूप राजमान रूप देवता कहा है।
वैदिक विश्वदर्शन में जितने भी तत्त्व हैं वे सब ब्रह्म नाम से पुकारे जाते हैं, इन सब में यह ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। इस ब्रह्मणस्पति का दूसरा नाम बृहस्पति भी है यह ऋ० वे० (२-२३, २-२४) से स्पष्ट है। बृहस्पति की व्युत्पत्ति *“वाग्वै बृहती तस्याएषपतिस्तस्मादु बृहस्पतिः, एष उ एव ब्रह्मणस्पतिः वाग्वै ब्रह्म तस्या एष पतिस्तस्माद् ब्रह्मणस्पतिः” (बृह० उप०१-३-३-२०, २१) है।*

वाक् का नाम ब्रह्म है, बृहती नाम वाक् का है। इन दोनों वाक् या बृहती का पति बृहस्पति या ब्रह्मणस्पति या सीधे सीधे वाक् पति कहलाता है। यह ब्रह्मणस्पति त्रिपादामृतीय ज्योतिर्मय ज्ञानमय चैतन्यमय देवता है। ब्रह्म नाम वाक् का है जिसको *’सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ (तै० उप०)* कहते हैं; उस सत्य ज्ञान और अनन्त लक्षण धर्मिणी वाक् वा बृहती का पति या संरक्षण या मूल ज्योति -ब्रह्मणस्पति है । यही योगियों देवताओं का अग्रणी पुरोधा या पुरोहित या मुख्य प्राण है या आदि प्राण *(पुरः = प्राचीन+हितं = प्राणा:)* है। देवताओं में अग्रणी प्राण ज्ञान ज्योति और महायोगी योगकर्ता योगयज्ञ का ब्रह्मा नामक पुरोहित होने से इस ब्रह्मणस्पति का गणपति या गणेश नाम से सर्वप्रथम स्थापन और पूजन आदि किया जाता है। योगयज्ञ कर्ता मनोरूप इन्द्र को भी बृहस्पति या ब्रह्मणस्पति या गणपति या गणेण या योग यज्ञ का ब्रह्मा नामक पुरोहित कहा जाता है, यह पाणि सूक्त से स्पष्ट है। 

परन्तु हमारे महर्षियों ने इतने बड़े प्रमुख देवता की पूजा का प्रतीक बनाया ‘गोवर’ की मूर्ति या गोवर का पुतला या गोवर का ढेला या पिण्ड। आजकल के।कहे जाने वाले सभ्य लोगों को गोवर छूने में ही विजली गिरती, वज्रपात होता सा लगता है। वे इस प्रथा को असभ्यता और पिछड़ी सभ्यता का चिह्न समझते हैं । पर विधान तो पञ्चगव्य-गोमूत्र गोदुग्ध गोदधि गोघृत और गो नवनीत के घोल को पीने और आजकल के सेनेटाइजर की तरह सर्वत्र छिड़कने का, और उस गोमय से घर मन्दिर वेदी आदि को लीपने पोतने का भी है। ये दोनों कार्य शुद्धि के लिए-आत्म शुद्धि स्थान शुद्धि, देह शुद्धि और गृह शुद्धि में परम आवश्यक हैं। पर आजकल इनको करने में कई श्रद्धालु भी नाक भौं सिकोड़ते दीखते हैं, पर करते हैं घसीट कर । यद्यपि गोमूत्रादि सेवन सिञ्चन का समर्थन, आजकल मूत्र से संशोधक ओषधियाँ बनाकर उनसे जलादि की शुद्धि करने से तो हो सकता है और इसके बाह्याचरण में यह फल भी अनायास, विना अधिक प्रयास और विना किसी व्यय के सरलता से सभी को सुलभ है और हो सकता है। परन्तु प्राचीन ऋषियों की दिगन्त व्यापिनी दृष्टि ने केवल उक्त अनिवार्य और सर्वसुलभ शुद्धि प्राप्ति मात्र के हेतु इन विधानों को नहीं चुना। इनमें कुछ अन्य अति गम्भीर और अलौकिक रहस्य भी भरे पड़े हैं।

गणेश या गणपति की मूर्ति के लिए गोमय या गोबर का एक समत्रिकोणी पिण्ड स्थापित करना (सबको साक्षात् रूप में यह सीख देते हुए भी कि एक छुद्र सी वस्तु सर्वज्येष्ठ देवता की मूति का आधार हो सकती है, सर्वश्रेष्ठ है और जिसको मानो वह श्रेष्ठ हैं) गोमय गोवर ज्ञब्द के वैदिक काल में प्रचलित रहस्य का संकेत करने के लिए विहित-किया गया । गो शब्द का अर्थ आदित्य और किरण होता है। गामय मूर्ति के माने किरणों की आदित्य स्वरूपी ज्योतिःपुञ्ज की मूर्ति हाता है । ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति या गणपति देवता है । सभी दवता वनशील दीप्ति शील दीप्ति रूपी आत्मायें हैं। अतः इनकी मूति को ज्यातिः पुञ्जमयी बताने मात्र के लिए ‘गोमय’ शब्द और संशाधक, गोबर गोमूत्र को प्रतीक रूप में, उभयत्र सार्थकतया, गृहीत किया गया था जिसको आज हम सबने भली-भाँति भुलाकर पूर्वजों की प्रचारित अलौकिक प्रथाओं को हास्य धृणा और दया का पात्र बना डाला है। खेद है ।

इस प्रधान देवता को गणपति, निधिपति, प्रियपति और कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि नाम से क्यों पुकारा जाता है ? यह अवश्यमेव ज्ञातव्य विषय है। इसमें गण तो मरुतों के हैं, सात गण हैं, प्रत्येक में सात-सात हैं, कुल ४९ हैं। योग में इन्ही का नाम अङ्गिरस है । क्योंकि इनको, भौतिक प्राण रूप अङ्गों को निचोड़ कर रसमय दीप्ति रूप में उद्दीप्त किया जाता है । ये गण मौलिक प्राणों के हैं । उनका यह मुख्याधिष्ठाता देवता है। इन गणों की देवी ज्योतियाँ ही इसकी गणनानुसार निघियाँ हैं, इन निधियों का पालक रक्षक भी यही देव है। प्रिय वस्तु प्राण है, प्राण को छोड़ कोई अन्य वस्तु अधिक प्रिय हो ही नहीं सकती *’प्राणो हि प्रियः’ (बृह० उप०)* । इन मरुतादि आदि प्राणों का पालक और संरक्षक भी यही गणपति नामक ब्रह्मणस्पति देवता है। कवि नाम योगी का है, यह योगियों में सर्वश्रेष्ठ योगी प्राण है। इसकी इच्छा के बिना कोई योग करने के लिए प्रवृत्त ही नहीं हा सकता। सृष्टि काल में यह उक्त गणों के नाना योगों संयोगों से नानाविध सृष्टि करता है वो याग काल में उक्त नानाविध सृष्टि से अङ्ग नामक प्राणों से रस ज्याति निचाड़ कर अङ्गिरा नामक सप्तषियों या मौलिक मरुतों को अपने आदि रूप में प्रस्तुत करता है। अतः सर्वश्रेष्ठ कवि या योगी है। इसी कारण यह वाक्पति या वाचस्पति या विद्यापति होने से अक्षर स्वीकार और विद्यारम्भ संस्कारों में इस देवता का आह्वान *’ॐ नमः सिद्धं’* सम्बोधन से कहत हैं। लोग *’ॐ नमः सिद्धं’* का अर्थ न जानने के कारण इस वाक्य को बौद्धों का मन्त्र समझते हैं। बौद्धों ने तो सभी विषयों को सनातनी वेद विद्या से लेकर उन्हें बौद्धों का चोगा मात्र पहना दिया है ।

सिद्ध नाम महायोगी का हे । ब्रह्मणस्पति या वाचस्पति ही सर्वादि सिद्ध या योगी है। मनुष्य सिद्धों में कपिल मुनि का नाम सबसे पहले आता *’सिद्धानां कपिला मुनिः’ (गीता १०)।* बौद्ध लोग गौतम बुद्ध को भी योगी मान कर ही इस मन्त्र से उनका आह्वान करते हैं ता यह कोई नई बात नहीं है उनकी यह हमसे उधार ली हुई प्रथा है।

आजकल इस देवता का प्रसिद्ध नाम गणेश या श्रीगणेश हो गया है। यह इतना प्रचलित हो गया है कि इनका नाम किसी कार्य को ‘प्रारम्भ करने के अर्थ में मुहावरा बन गया है। लोग कहत हे ‘इस कार्य का श्रीगणेश’ करना है या हो गया है या होगा’। पूजाओं में जो पूजा का आरम्भ इन्हीं की पूजा से होता है उसमें उक्त महावरे का अर्थ भी छिपा हुआ जानना या समझना आवश्यक है । क्योंकि यह देवता ही दोनों प्रकार की सृष्टियों-आध्यात्मिक और भौतिक का विकास सबसे प्रथम प्रारम्भ करता है, यह भी दोनों हो स्थितियों में, सृष्टि और योग दोनों अवसरों पर पुराणों में इस ब्रह्मणस्पति या श्रीगणेश को रुद्र और पार्वती का पुत्र बतलाया हैं। तब लोग प्रायः प्रश्न करते सुनाई पड़ते हैं कि जिस समय रुद्र पार्वती का विवाह हुआ था उस समय उन्होंने किस गणेश की सर्वप्रथम पूजा की थी ?
इस समस्या का विश्लेषण सृष्टि और योग दो पक्षों के अनुसार पृथक् पृथक् है । सर्वादि तत्त्व तो ‘अग्निर्देवता’ है जो प्राणों के शरीर रूप आपोमय सागर में ‘वाडवानल’ या ‘प्राणाश्वाग्नि’ रूप में व्याप्त रहता है। यह सर्व प्रलयावस्था है। इस स्थिति से अग्नि रूप में अपरिवर्तित या मुक्तिहीन तत्त्व जब उस प्राणसागर से बृंहण करना या सृष्टिविकास करना प्रारम्भ करता है तब यही अग्निर्देवता इस बृंहणात्मक क्रिया से ब्रह्म या ब्रह्मणस्पति या गणपति कहलाने लगता है। इस अग्नि का नाम रुद्र है ‘अग्निर्वै रुद्रः’ (श० ५० ब्रा०) । इसका आपोदेवीमय प्राण सागर शरीर विभिन्न (सप्त) प्राणों के पर्वो या पर्वतों वाला होने से पर्विणी या पार्वती कहलाती है। इन्हीं दो के संयोग से इस ब्रह्मणस्पति नामक ‘ज्येष्टराज’ ‘ज्येष्ठ देवता’ का जन्म होता है। अतः इसे रुद्र या शिव (चेतना) और पार्वती (प्राण पर्वो) का पुत्र या विकास कहा गया है।
योग पक्ष में रुद्र, योगी की आत्मा है, योगी यजमान है । इस शरीर के प्राणों का ऐक्य पार्वती या प्राणों का महा पर्व या महापर्वत है। इन दोनों की साधना पुनः इस ब्रह्मणस्पति रूप अग्निदेवता की उद्दीप्ति सर्वप्रथम की जाती है जिसके उद्दीप्त हो जाने पर, पुनः अन्य देवता भी उद्दीप्त होने लगते हैं। योग से उद्दीप्त इस अग्नि ज्योति का ‘पुत्र’ सुत प्रजा इत्यादि नामों से वेदों में पुकारा गया है। अतः इस ब्रह्मणस्पति को योगी रुद्रात्मा और प्राण रूप देह वाली पार्वती का प्रथम पुत्र कहा जाता है।
यहाँ का रुद्र पार्वती विवाह सृष्टि कालीन ही है, नया नही, वही विवाह नित्य है, नित्य अभिन्न और साथ है। इस रुद्र पार्वती का विवाह तो नित्य सिद्ध है। प्रलय में भी नित्य सिद्ध है। न इसकी बारात जाती है न आती है। अग्नि और ज्योति (पार्वती) नित्य अभिन्न सहचर हैं। पुराणों ने सब बातें वर्णना सौन्दर्य और साहित्यिक आकर्षण के लिए लिख दी हैं। इन्हें झोल समझें, रहस्यों का खोल समझें।
इनके विना रहस्य रहस्य ही नहीं रह जाता, नंगा हो जाता। ये आकर्षक और सार्थक झोल और खोल हैं। जब इन दोनों का कभी विवाह ही नहीं हुआ तो गणेश की पूजा का प्रश्न ही कहाँ से उठ सकता है ? साथ ही वहाँ जो विवाह की वर्णना है वह भी गम्भीर रहस्य रूपकात्मक अभिव्यक्ति है।

पर प्रश्न तो है इनके आजकल प्रसिद्ध स्वरूप का। इनको वर्तमान पूजा विधानों में हस्तिमुख और मूषक वाहन रूप में स्थापित किया या गोवर के थोप से पूजने में तदाकार प्रकार में वर्णित किया जाता है। इनका हस्तिमुखी मानव शरीर अनेकान्य तदनुरूप देवता प्रतीकों का स्मरण दिलाता है जैसे अश्विनी, अश्वतरीमुख, हयग्रीव, नृसिंह, गोकर्ण इत्यादि । इन्हीं के समानान्तर स्वरूप हैं हनूमान (वृषाकपि) गुहराज ऋक्ष प्रभृति । दो के जोड़े वाले शरीरों को द्यावापृथिवी के या रोदसी के एकत्र सम्मिलित स्वरूप को दर्शाने के लिए प्रतीक रूप में गृहीत किया गया है ।

इनका शिर तो द्यावा है धड़ पृथिवी। दोनों मिलकर अखिल ब्रह्माण्ड या पूर्ण देह का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से हस्तिमुख, अश्वमुख, अश्वतरीमुख, सिंहमुख अजमुखदक्ष गोमुख सभी पूर्वार्द्ध या द्यावा के प्रतीक हैं तो नर का धड़, नर नामक पञ्च, षट् , सप्त, अष्ट, नव, या दश प्राणों नवग्वा दशग्वा अङ्गिरस ऋषि रूप प्रणों का मनुष्य रूप में (उक्त सिर या शीर्षण्य प्राणरहित) सूचक । इनके सिर भाग पंच पशुओं के रूपों में वर्णित करने में दो मुख्य रहस्य निहित हैं। यह भाग द्यावा रूप ब्रह्म के मूल स्वरूप अमृतमय प्राण स्वरूप का प्रतीक है। इसका न रूप है न आकार या प्रकार, यह अरूप अशरीर है, मात्र अमृतमय प्राण रूप है। अतः इसकी मात्र अनुभूति की जा सकती है। इस शरीर की देहधारी इन्द्रियों से इसका दर्शननहीं हो सकता। इसीलिए इसका प्रतीक ‘पशु’ बनाया है । ‘पशु’ प्रतीक का अर्थ है जिसकी मात्र अनुभूति की जा सकती ‘यदपश्यत्तस्मादेते पशवः’ (श०प० ब्रा० ६-१) जिनकी मात्र अनुभूति की गई (अपश्यत्=आभ्यान्तर आत्मा से देखा अनुभूत किया) उसी को पशु कहने लगे। यह अनुभूति जिस स्वरूप में अनुभूत हुई तदनुरूप पशु के समान उसका वर्णन वेदों में किया गया। मुख्यतः पाँच प्रकार के पशुओं के रूप में उसकी अनुभूति की गई–’पुरुषपशु, अश्व गो अवि और अजा'(तथा उष्ट्र रासभ)। इसी अनुभूति का चित्र ‘देवाः (योगिनः *) यद्यज्ञं तन्वाना अवघ्नन् पुरुषं पशुम्’ (ऋ० वे० १०-९०-१६* , सब वेदों में प्राप्त) ने स्पष्ट रूप में दे भी रखा है। अतः यहाँ पर हमारा यह ‘हस्तिमुख गणपति’ पुरुषपशु का प्रतीक है। इस हस्ति की कथा शतपथब्राह्मण ने भी दी है ।
वेद में छन्दों को भी पशुओं के रूपों में अनुभूत किया जाता है। बृहती नामक वाणी के पति बृहस्पति या ब्रह्मणस्पति को बृहती नामक स्थूलकायिनी नाम से न कह कर हस्तिनी कह दिया (स्थूलाकायिनी के कारण) तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। हस्तिमुख नाम पुराणकारों का चुना हुआ है जिसका उक्त दो भावनाओं को छोड़ एक तीसरा वैज्ञानिक स्रोत भी है। पुराणों ने लिखा तो है कि गणपति शिर हीन ही जन्मा था या उसका सिर गायब हो गया था। इसका स्पष्ट और सोधा आशय (श० ब्रा० और ऋ० वे० के) इसको मार्ताण्ड या मृताण्ड कहने तथा इसके सिर धड़ दोनों बराबर बताने और उनको कुतरने से जो मांस निकला-मन्थन द्वारा जो प्राण रूप ज्योति निकली उसका नाम हस्ति रखा गया कहने तथा उसीको इसमें यहाँ जोड़े जाने में यह आशय है कि प्रथम भौतिकामृत शरीर का जन्म प्राण हीन निर्जीव शव रूप में धड़ रूप में हुआ था, उसमें बृहती छन्दो रूप द्यावा की हस्तिनी या सर्वव्यापिनी आत्मा का सिर लगा दिया तो वह सजीव सप्राण सामृत सचेत सानन्द ज्योतिर्मय शिवस्वरूप हो गया। यह तो इस प्रकार की विचारधारा का मूलस्रोती सृष्टिपक्षीय व्याख्यान है।

वहीं योग पक्ष में हमारे शरीर रूप देवी ज्ञान चेतना हीन मार्तण्ड को मथकर कुतर कुतर कर उसमें हस्ति रूप दैवी ज्योतिर्मय चैतन्यता का सिर लगाया।जाता है। प्रश्न फिर भी रह ही जाता है कि आखिर इम्ही पशुओं की सी ही अनुभूति किस प्रकार हुई, अन्य पशुओं की सी क्यों नहीं। इसका भी अनुपम और अकाट्य प्रमाण है। इस ब्रह्माण्ड या शरीर को दैवी प्राण की नानाविध-व्यापिका शक्ति उसी प्रकार सतत क्रिया चेतना संज्ञा प्रकाशमय बनाकर आगे खींचती जाती है जैसे रथ को हाथी अश्व वृषभ (रूसमें, कुत्ते) आदि खींचते हैं । लिखा भी है-
*”मर्त्यं वा इदं शरीर मात्तं मृत्युना अशरीरं सन्तं न प्रिया प्रिये स्पृशत ।*
*अशरीरो वायुरभ्रं विद्युत् स्तनयित्नुरशरीराण्येतानि ।*
*आकाशात्समुत्थाय स्वेन ज्योतिषाऽभिनिष्पद्यन्ते ।*
*स उत्तमः पुरुषः नोपजनं स्मरन्निदं शरीरं स यथा प्रयोग्य (अश्वः वृषभः)*
*आचरणे युक्त एवमेवायमस्मिच्छरीरे प्राणो युक्तः॥” (छा० उप०८-११)*

इसका यह तात्पर्य हुआ कि योगी पृषि गण उस परब्रह्म रूप प्राण को हस्ति अश्व गो अवि अजा उष्ट्र रासभ के विभिन्न कर्मानुकूल अनुभूत करने से इन्हीं नामों से संकेत रूप में या प्रतीक रूप में पुकारते रहे। यह रहस्यवादी या परोक्षवादी या परोक्षकामा पद्धति है। यह इस गणपति नामक ब्रह्मणस्पति या बृहस्पति या वाक्पति या देवताओं में सर्वाग्रणी देवता के हस्तिमुख की संक्षिप्त कथा हैं। पुरुष पशु के हस्ति स्वरूप की व्याख्या श० प० ब्रा० ने (३-१-३-१) में लिखा कि इसके सिर धड़ बराबर थे, उनको कुतर कर जो मांस निकला वह हस्ती बना। वह हस्ती दिशाओं का सूचक है। दिशाओं में ही दशदिग्गज रहते हैं। यह पुरुष पशु की असीमता का सूचक शब्द है। यह ब्रह्माण्ड व्यापी ब्रह्मणस्पति ही हस्तिमुख कहलाता है। हस्तिमुख माने जिसकी सीमा का, दिशा का, कहीं अन्त नहीं या जो दिगन्तव्यापी है वही हस्तिमुख है। अर्थात् जैसे हस्ती पशुओं में सर्वविशाल है वैसे ही देवताओं में यह सबसे अधिक महतोमयीयान् है सर्वव्यापी ज्ञान बुद्धिमय होने से विनायक विघ्न हर्ता या सद्बुद्धिदाता सन्मार्गों का नेता है। हस्तिमुख में एक सूंड होती है, पर व्याख्या में इसकी चर्चा नहीं के बराबर आई है । इस सूंड को सृष्टि वृक्ष मूलक इस ब्रह्मणस्पति या गणपति के ‘अज एक पात्’ स्वरूप के सृष्टि वृक्ष के ‘एक पात्’ का प्रतीक समझना उचित होगा ।
यद्यपि लोक में प्रत्येक हाथी के चार दाँत होते हैं दो बड़े दो छोटे जिन्हें लोग, ‘खाने के और दिखाने के और’ कहते हैं, परन्तु इस हस्तिमुख के गणेश का तो केवल एक ही दाँत (अन्य तीनों गायब)। लिखा भी है *“एकदन्तं शूर्पकर्ण” या “सुमुखश्चैकदन्तश्च”।* दन्त अस्थि का होता है। अस्थि तेजः का स्थविष्ठ (स्थूलतम) रूप है, जिस (तेजः) का मध्यम रूप मज्जा और अणिष्ठ रूप वाक् है। अतः एक दन्त माने एक वाङ्मय या सत्यवाङ्मय और तेजोमय शरीरी गणपति है। दन्त का स्थान मुख या वाक् का उच्चारणीय स्थान है भी। दो दन्त या ३२ दन्त इसीलिए भी नहीं गिनाये कि उनसे ऐक्य एकता या सत्य सत्यता में विकार आने की सम्भावना निहित है। इस गणपति की पूजा में पूजा वस्तु दूर्वाङ्कुर (पूजा) और दशमोदक दान हैं। दूर्वाङ्कुर पूजा इस गणपति ब्रह्मणस्पति से-
*”काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ति परुषः परुषस्परि ।*
एवानो दूर्वा प्र तनु सहस्रेण शतेन च ॥”
यजुः के मन्त्र के अनुसार काण्ड-काण्ड से शतधा सहस्रधा सृष्टि वृक्ष का विकास होना सूचित करते हुए हम योगी यजमानों का भी तथैव विकास करने की की प्रधान प्रार्थना अभीष्ट है जिसकी सिद्धि के लिए दश मोदक रूप दश प्राणों की हविः मीठी या अमृतमय सोममय हविः, प्रदान कर योग सृष्टि का भी पूर्ण अभिनय किया जाता है । अन्त में गणपति के हस्तिमुख या शुण्डाकार मुख का वास्तविक रहस्य दे दिया जाता है। यह योग पूजा और यज्ञादिकों का देवता है। योगादिक समाधि या मस्तिष्क से होते हैं। मस्तिष्क में इस देवता का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रवाही स्नायुकोष (moxor nerve cells) ठीक हमारे कपाल के सिर में शुण्डाकार होते हैं जिनसे लम्बे-लम्बे केशों जैसे नाडी तन्तु सुषुम्ना के द्वारा सारे शरीर में फैले रहते हैं। इसी कारण इस देवता को एकदन्त या शुण्डाकार मुख का घोषित किया है। ऐसे प्रवाही स्नायुकोश अनन्त हैं, अतः इसे गणपति कहते हैं। यह सर्वत्र प्राण संचार करता है ज्ञान प्रवाह देता है। अतः विद्या का गति का और जीवन का मुख्य देवता है और सर्वादि में पूजा जाता है और इसे विनायक नाम प्रतिक्षेप गतिदान देने से पड़ा है।

जिन लेखकों को यह भी विदित नहीं है कि वैदिक।देवता क्या हैं कौन हैं ? वे कहते हैं कि गणपति पूजा का प्रचार गौतम बुद्ध के समय के बाद हुआ। यह उनका महान् भ्रम है। विघ्नहर्ता विनायक नाम से इस गणपति की पूजा सद्बुद्धि सद्ज्ञान रूपी गणपति की पूजा है । यह नई बात नहीं है। फिर भी कुछ पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय (अनार्यवंशी) यह कहते हैं कि ‘आर्यों ने देवी रुद्र और गणपति की पूजा भारतीय आदिवासी जंगली जातियों की नकल करके अपनाई। यदि वेदों में वर्णित असुर ये ही अनार्य जातियाँ ही रहीं तो इनको वेदों में ‘अदेवयू’ या देवता हीन बताया गया है। जिनके पास कोई देवता ही नहीं रहा उनकी इस सम्बन्ध में नकल करना स्वयं असम्भब है। हुआ इसका उलटा है। कुछ कबीलों और आदिवासियों ही ने पशुबलि अज्ञान से किया। निर्णय यह निकलता है कि देवताओं के उपासक मात्र आर्य ही हैं। शेष उनके अनुगामी।