ब्राह्मी संस्कृत नन्दिनागरी से देवनागरी तक हिन्दी की महा यात्रा

ब्राह्मी संस्कृत नन्दिनागरी से देवनागरी तक हिन्दी की महा यात्रा

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हिन्दी के अक्षर और वर्तनी उसके मूल संस्कृत स्वरूप में 2600000 साल पहले महर्षि बाल्मीकि ने रामायण के रूप में  प्रस्तुत की है। इससे पूर्व आधुनिक हिंदी का स्वरूप ब्राह्मी , अर्थात ब्रह्मा द्वारा विरचित था। जबकि 5000 वर्ष पूर्व महर्षि वेदव्यास ने देववाणी संस्कृत में वेदों, पुराणों और शास्त्रों संहिताओं लिपिबद्ध करके दिया है। तब ऐसे में हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को सातवीं सदी किस आधार पर कहाजाजाता है? संभवतः ऐसा मुगल और उनके एजेंटों ने जो प्रचार किया उसे ही चेंप दिया जाता है। ब्राह्मी संस्कृत देवनागरी हिंदी विश्व की सबसे प्राचीनतम वैज्ञानिक भाषा और लिपि है। मुगलों के एजेंट जिन्हें आज इतिहासकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है यदि उनके प्रवर्तक ही कुल जमा चौदह सौ साल पहले पैदा नहीं होते, तो इतिहास के नाम पर ऐसे कहानीकार उन्हें भगवान विष्णु से भी पुराना सिद्ध कर देते। भगवान राम छब्बीस लाख वर्ष पूर्व और भगवान कृष्ण पांच हजार वर्ष पूर्व इस धरा धाम विराजमान थे। ऋषि कृष्ण द्वेपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। महाभारत के बारे में कहा जाता है कि इसे महर्षि वेदव्यास के गणेश को बोलकर लिखवाया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की, ऐसा माना जाता है। वेदव्यास यह व्यास मुनि तथा पाराशर इत्यादि नामों से भी जाने जाते है। वह पराशर मुनि के पुत्र थे, अत: व्यास ‘पाराशर’ नाम से भि जाने जाते है। महर्षि वेदव्यास को भगवान का ही रूप माना जाता है, इन श्लोकों से यह सिद्ध होता है। नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र। येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।। अर्थात् – जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है। व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे। नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।। अर्थात् – व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे ‘शक्ति’; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र पाराशर (तथा व्यास) । अतः सैक्युलर गैंग के चश्मे से तत्थ्यों को देखें तो वे कैसे समझ आयेंगे।👌💐🚩👍🚩–डाॅ हरीश मैखुरी (संपादक) 

मोबाइल, नेट के दौर में आज हिंदी को विदेशी लिपि में लिखने का अनावश्‍यक चलन आया है, ब्राह्मी संस्कृत, नन्दिनागरी, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश से देवनागरी हिन्दी तक की महा यात्रा को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमारे वेदों और पुराणाें में भाषाओं को प्रारम्‍भ में जहां ब्रह्माक्षर ( या ब्राह्मी। सन्‍दर्भ – शिवधर्मपुराण) में लिखने का आख्यान है, वहीं बाद में नन्दिनागरी लिपि में लिखने का आख्यान मिलता है। यह देवनागरी लिपि का पूर्व और प्रारम्भिक रूप है। उत्‍तर गुप्‍तकालीन देवीपुराण, शिवधर्मोत्‍तर पुराण और अग्निपुराण में नन्दिनागरी लिपि का सन्‍दर्भ मिलता है। 
देवीपुराण में कहा गया है कि नन्दिनागरी लिपि बहुत सुन्‍दर है और इसका व्‍यवहार समस्‍त वर्णों को ध्‍यान में रखकर किया जाना चाहिए। इसमें किसी भी वर्ण और उसके अंश को भी तोड़ना नहीं चाहिए। अक्षरों को सरल लिखना चाहिए न कि कठोर लिखना चाहिए। हेमाद्रि (1260 ई.) ने भी इन श्‍लोकों को चतुर्वर्ग्‍ग चिन्‍तामणि में उद्धृत किया है-
नाभि सन्‍तति विच्छिन्‍नं न च श्‍लक्ष्‍णैर्न कर्कशै:।। 
नन्दिनागरकैव्‍वर्णै लेखयेच्छिव पुस्‍तकम्।। 
प्रारभ्‍य पंच वै श्‍लोकान् पुन: शान्तिन्‍तु कारयेत्। (देवीपुराण 91, 53-54 एवं शिवधर्मोत्‍तर)
पुस्‍तकों के लिखने के सन्‍दर्भ में यही मत अग्निपुराणकार ने भी प्रस्‍तुत किया है। नन्दिपुराण में कहा गया है कि स्‍याही का उचित प्रयोग करना चाहिए और वर्णों के बाहरी-भीतरी स्‍वरूपों को सही-सही प्रयोग करना चाहिए। उनको सुबद्ध करना चाहिए, रम्‍य लिखना चाहिए, विस्‍तीर्ण और संकीर्णता पर पूरा ध्‍यान देना चाहिए। (दानखण्‍ड अध्‍याय 7, पृष्‍ठ 549) यही एक ऐसी लिपि है जिसको देह पर गुदवाया जाता है। राम नामी की महत्ता इसी लिपि के कारण है। और, कहीं है?
लिपियां -भारत वर्ष में बड़ा लिपि संसार
हमारे यहां कई लिपियां थीं। पहली सदी तक चौंसठ लिपियां अस्तित्‍व में थीं। लिपियों का इतनी संख्‍या में होने से स्पष्ट है कि ये सब एकाएक नहीं आ गई। अपितु करोड़ों वर्ष की विकास यात्रा की परिचायक हैं। 
 भारत वर्ष देश में इतनी लिपियां और उनको लिखने की परंपरा,.. सिद्दार्थ (बुद्ध) जब विद्याध्ययन आरंभ करते हैं तो पहले ही दिन शिक्षक उनको 64 लिपियों के नाम गिनाते हैं जिनमें पहली लिपि ब्राह्मी हैं। ब्राह्मी वही लिपि है जिसको चीनी विश्‍वकोश में भी ब्रह्मा द्वारा उत्‍पन्‍न करना बताया गया है..। 
पड़ नामक लिपि खोदक का नाम अशोक के शिलालेख में आता है, जो अपने हस्‍ताक्षर तो खरोष्‍टी में करता था अौर लिखता ब्राह्मीलिपि। हालांकि अशोक ने अपनी संदेशों को धर्मलिपि में कहा है। 
ऐसे में ब्‍यूलर वगैरह उन पाश्‍चात्‍य विद्वानों के तर्कों का क्‍या होगा जो शाजिशन भारतीयों को अपनी लिपि का ज्ञान बाहर से ग्रहण करना बताते हैं। भारत में लिपियों का विकास अपने ढंग से, अपनी भाषा और अपने बोली व्‍यवहार के अनुसार हुआ है। हर्षवर्धन के काल में लिखित वाणभट्ट कृत ‘कादम्‍बरी’ में राजकुमार चंद्रापीड़ को अध्‍ययन के दौरान ‘सर्वलिपिषु सर्वदेश भाषासु’ प्रवीण किया गया। कादम्बरी में मैखुरीभि शब्द आया है। 
 इस आधार पर यह माना जाता है कि उस काल तक लोग सभी लिपियां जानते थे, अनेक देश की भाषाओं को जानते थे। उनको पढ़ाया भी जाता था। लगता है कि भारतीयों को अनेक लिपियों का ज्ञान होता था तभी तो हमारे यहां लिपिन्‍यास की परंपरा शास्‍त्रों में भी मिलती है। लिपिन्‍यास का पूरा विधान ही अनुष्‍ठान में मिलता है।
🚩श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
🎋”भूतपूर्व वैयाकरणज्ञ 🔥भव्य-भारत”🎋
एक समय था, जब भारत सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र सबसे आगे था । प्राचीन काल में सभी भारतीय बहुश्रुत,वेद-वेदाङ्गज्ञ थे । राजा भोज को तो एक साधारण लकडहारे ने भी व्याकरण में छक्के छुडा दिए थे। व्याकरण शास्त्र की इतनी प्रतिष्ठा थी की व्याकरण ज्ञान शून्य को कोई अपनी लड़की तक नहीं देता था ,यथा:- “अचीकमत यो न जानाति,यो न जानाति वर्वरी।अजर्घा यो न जानाति,तस्मै कन्यां न दीयते”
 
यह तत्कालीन श्लोक में ख्यात व्याकरणशास्त्रीय उक्ति है  ‘अचीकमत, एवं अजर्घा इन पदों की सिद्धि में जो सुधी असमर्थ हो उसे कन्या न दी जाये” प्रायः प्रत्येक व्यक्ति व्याकरणज्ञ हो यही अपेक्षा होती थी ताकि वह स्वयं शब्द के साधुत्व-असाधुत्व का विवेकी हो,स्वयं वेदार्थ परिज्ञान में समर्थ हो, इतना सम्भव न भी हो तो कम से कम इतने संस्कृत ज्ञान की अपेक्षा रखी ही जाती थी जिससे वह शब्दों का यथाशक्य शुद्ध व पूर्ण उच्चारण करे :- 
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥
अर्थ : ” पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि ‘स्वजन’ ‘श्वजन’ (कुत्ता) न बने और ‘सकल’ (सम्पूर्ण) ‘शकल’ (टूटा हुआ) न बने तथा ‘सकृत्’ (किसी समय) ‘शकृत्’ (गोबर का घूरा) न बन जाय। “
भारत का जन जन की व्याकरणज्ञता सम्बंधित प्रसंग “वैदिक संस्कृत” पेज के महानुभव ने भी आज ही उद्धृत की है जो महाभाष्य ८.३.९७ में स्वयं पतञ्जलि महाभाग ने भी उद्धृत की हैं ।
सारथि के लिए उस समय कई शब्द प्रयोग में आते थे । जैसे—सूत, सारथि, प्राजिता और प्रवेता।
आज हम आपको प्राजिता और प्रवेता की सिद्धि के बारे में बतायेंगे और साथ ही इसके सम्बन्ध में रोचक प्रसंग भी बतायेंगे ।
रथ को हाँकने वाले को “सारथि” कहा जाता है । सारथि रथ में बाई ओर बैठता था, इसी कारण उसे “सव्येष्ठा” भी कहलाता थाः—-देखिए,महाभाष्य—८.३.९७
सारथि को सूत भी कहा जाता था , जिसका अर्थ था—-अच्छी प्रकार हाँकने वाला । इसी अर्थ में प्रवेता और प्राजिता शब्द भी बनते थे । इसमें प्रवेता व्यकारण की दृष्टि से शुद्ध था , किन्तु लोक में विशेषतः सारथियों में “प्राजिता” शब्द का प्रचलन था। भाष्यकार ने गत्यर्थक “अज्” को “वी” आदेश करने के प्रसंग में “प्राजिता” शब्द की निष्पत्ति पर एक मनोरंजक प्रसंग दिया है । उन्होंने “प्राजिता” शब्द का उल्लेख कर प्रश्न किया है कि क्या यह प्रयोग उचित है ? इसके उत्तर में हाँ कहा है ।
कोई वैयाकरण किसी रथ को देखकर बोला, “इस रथ का प्रवेता (सारथि) कौन है ?”
सूत ने उत्तर दिया, “आयुष्मन्, इस रथ का प्राजिता मैं हूँ।” 
वैयाकरण ने कहा, “प्राजिता तो अपशब्द है।”
सूत बोला, देवों के प्रिय आप व्याकरण को जानने वाले से निष्पन्न होने वाले केवल शब्दों की ही जानकारी रखते हैं, किन्तु व्यवहार में कौन-सा शब्द इष्ट है, वह नहीं जानते । “प्राजिता” प्रयोग शास्त्रकारों को मान्य है ।”
इस पर वैयाकरण चिढकर बोला, “यह दुरुत (दुष्ट सारथि) तो मुझे पीड़ा पहुँचा रहा है ।”
सूत ने शान्त भाव से उत्तर दिया, “महोदय ! मैं सूत हूँ। सूत शब्द “वेञ्” धातु के आगे क्त प्रत्यय और पहले प्रशंसार्थक “सु” उपसर्ग लगाकर नहीं बनता, जो आपने प्रशंसार्थक “सूत” निकालकर कुत्सार्थक “दुर्” उपसर्ग लगाकर “दुरुत” शब्द बना लिया । सूत तो “सूञ्” धातु (प्रेरणार्थक) से बनता है और यदि आप मेरे लिए कुत्सार्थक प्रयोग करना चाहते हैं, तो आपको मुझे “दुःसूत” कहना चाहिए, “दुरुत” नहीं है। व्याकरण की दृष्टि से प्रवेता शब्द शुद्ध माना जाता था। (साभार – वैदिक संस्कृत)