’पर्यावरण रक्षा के साथ आजीविका’

बलबीर राणा ‘अडिग’

मित्रो मैं आज आपका परिचय पर्यावरण संरक्षण के विषय में अपने गांव मटई व क्षेत्र बैसकुण्ड चमोली के बारे में कराऊंगा। हमारा गांव और क्षेत्र मध्य हिमालय में 1200 से 3500 मीटर ऊंचाई में समशीतोष्ण वनों की श्रेणी में आता है और अन्य मध्य हिमालयी क्षेत्रों की तरह यहां पर जलवायु अनुकूल बांज- बुरांस के मिश्रित जंगल है। बांज (ओक) की यहां पर तीन प्रजातियां है (बांज, तिलोंज रूतेलिंगरू और खरसू रूरूखैरुरूरू) इन प्रजातियों की श्रेणी पहले बांज फिर खैरु फिर तेलिंग खैरु मिक्स जंगल हैं। बात करते हैं पर्यावरण रक्षा और आजीविका की जिसको हमारा क्षेत्र और गांव पुश्तेनी से करते आये हैं गांव की खेती के साथ लगे हमारे बांज के जंगल जो हमारे पुरखों द्वारा रोपित और संरक्षित हैं आज भी अपने पूर्ण स्वरूप में झपन्याले (घनघोर) हैं यह पुश्तेनी धरोहर जहां हमारी आजीविका से जुड़ा है वहीं हमारी आध्यत्मिक श्रद्धा और भावनात्मक लगाव इन पेड़ों से है, क्या मजाल नियम विरुद्ध एक भी वासिन्दा एक सोँली (टहनी) काट दे, इसी दृढ़ संकल्प से हम लोग बिना चैकीदारी के भी अपने इन बांज के पेड़ों को बचाते आये हैं।

पहाड़ के इस हरे सोने का लाभ हमे निरंतर मिलता रहता है, हमारी ग्राम पंचायत के नियम के अनुसार इस जंगल को तीन से चार खंडो में बांटा गया है एक या दो साल में एक खण्ड की छंटाई होती है उसमें भी कितने फीट की टहनी कटेगी और कितने सुगयटे (बांज के हरे पत्तों से निर्मित चारे के गट्ठा) व कितने भारे (कच्ची लकड़ी के गठ्ठे ) एक परिवार द्वारा लाया जाएगा इसे पंचायत सुनिश्चित करती है विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को दंडित किया जाता है इससे साल में दो से तीन महीने सम्पूर्ण गांव के मवेशियों के लिए पूर्ण चारा और वर्ष भर के लिए ईंधन (लकड़ी) मिल जाती है साथ ही हर वर्ष पतझड़ में बांज की सुखी पत्तियों (सुतर) के लिए भी यहीं नियम होता है व पर्याप्त मात्रा में मवेशियों के नीचे बिछाने के लिए सुतर मिल जाता है जिससे उत्तम कम्पोस्ट खाद बनती है।

पर्यावरण,खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज आजीविका का उत्तम साधन तो है ही वहीं पहाड़ी जल स्रोत को बचाने व भूस्खलन रोकने में सक्षम है। इन बांज के जड़ के पानी का महत्व वहीं जान सकता जिसने पिया हो। इन बांज के जंगलों को बचाने व जागरण लिए हमारे उत्तराखण्ड में कई लोक गीत, पवाड़े, झुमैलो गाये जाते रहे हैं ।

मैं अपने इस लेख के माध्यम से नयीं पीड़ी को संदेश देना चाहूंगा कि आगे पहाड़ और गंगा को बचाना है तो बांज का बचना अनिवार्य है चाहे इसके लिए कुछ भी जतन करो। इसी अथाह पर्यावरण प्रेम और अपने स्व सुख के लिए मेरे ससुर जी श्री इंद्र सिंह बिष्ट ने अपनी पैत्रिक खेती थनाकटे बैरासकुण्ड, चमोली में एक पूरा बांज का जंगल उगा दिया वो भी पिछले 15 सालों में अपनी सरकारी नोकरी से सेवानिवृति के बाद स्थानीय युवाओं के लिए श्री बिष्ट जी एक प्रेणा श्रोत हैं जिनकी आजीविका का आधा हिस्सा अपने द्वारा निर्मित जंगल से उपलभ्ध हो जाता है।

दोस्तो कहते हैं कोई भावनात्मक लगाव भी एक अंतराल तक होता है बढ़ते वैश्विक परिदृश्य के चलते आज वर्तमान पीढ़ी के लिए ये जंगल ज्यादा लगाव वाले नहीं हैं क्योंकि उनकी आजीविका वास्ता इन से नही है लेकिन पहाड़ और गंगा के अस्तित्व को बचाने के लिए आपको बांज का संरक्षण करना ही होगा।