जिन्होंने भारत का इतिहास मिटा दिया

  1. (लेख जरा लम्बा है लेकिन इसे पढ़ा जाना जरूरी है) प्रो.  माक्खन लाल

किसी भी देश का इतिहास उस देश का न केवल अतीत होता है, बल्कि वहां के समाज, धर्म, शिक्षा, राजनीतिक, आर्थिक एवं न्यायिक व्यवस्था का भी प्रतिबिम्ब होता है। इतिहास के माध्यम से हमें उस देश की विकास यात्रा, उसके जीवन के उतार-चढ़ाव, उस देश की बस्तियों के आचार-विचार एवं व्यवहार का पता चलता है। हम यह कह सकते हैं कि इतिहास में किसी भी देश की जड़ें हैं जो उसे न केवल अपने अतीत से जोड़े रहती हैं, बल्कि आज की स्थिति को संबल प्रदान करते हुए भविष्य के दिशानिर्देश का निर्धारण करती हैं। कहा जाता है कि इतिहास एक तरह से उस देश के एवं लोगों की पहचान है। लोगों को इतिहास से विमुख करने का सीधा मतलब यह होता है कि उन्हें अपने अतीत से काटा जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम देश एवं लोगों को भुगतना पड़ता है। कहा जा सकता है कि इतिहास किसी भी देश एवं समाज की पहचान है और देशवासियों को उनके अतीत से जोड़े रहने का कार्य करता है। इतिहास का महत्व, जैसा कि हम नीचे देखेंगे, देश निर्माण में अत्यंत अधिक है।

इतिहास के इस तरह के महत्व को देखते हुए यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि जब-तब हम इतिहास के लेखन और उसमें लिखित पाठ्य सामग्री के बारे में बहस न सुनते हों। कई बार तो घटनाओं एवं तथ्यों को लेकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी विवाद हुए हैं। दूसरे विश्व युद्ध को लेकर इंग्लैंड, अमेरिका, चीन, कोरिया, जापान, इस्रायल एवं जर्मनी के बीच तो अक्सर बहस छिड़ी रहती है, जिसका सीधा संबंध तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ से होता है।
किसी भी देश में इतिहास के महत्व को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। 1990 के दशक में कनाडा की सरकार ने इतिहास की सभी तत्कालीन पुस्तकों को निरस्त करके नयी पुस्तकें लिखवार्इं। नई पुस्तकों को लिखवाने के पीछे सरकार ने निम्नलिखित तर्क दिए :

1)    विद्यालयों में जो इतिहास पढ़ाया जा रहा था, उसमें देश का इतिहास बहुत ही कम था जिससे बच्चों को अपने देश के बारे में ही कुछ खास पता
नहीं था।
2)    जो इतिहास पढ़ाया जा रहा था, वह बच्चों को देशभक्ति से दूर कर रहा था।
3)    सामाजिक विज्ञान और इतिहास के नाम पर जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा था, उससे देश निर्माण की प्रेरणा की बात तो दूर, देश के प्रति नकारात्मक सोच भर रहा था।
4.    बच्चों को तथ्यों की शिक्षा देने की बजाय तोड़-मरोड़ कर वैचारिक ढांचे में पिरोकर व्याख्या पर ज्यादा जोर दिया।
भारतवर्ष में इतिहास से छेड़छाड़। इतिहास किसी भी देश और समाज की एक जरूरत और पहचान है। व्यक्ति, परिवार, समाज शायद ही रह पाएगा यदि हम उसके समूचे इतिहास को मिटा दें। किसी व्यक्ति के लिए अदालत का जो महत्व होता है, वही महत्व देश और समाज के लिए इतिहास का होता है। जिस तरह से एक याद्दाश्त-विहीन व्यक्ति अपने आपको परिवार, समाज या देश से जोड़ नहीं पाता, वह नहीं जानता कि वह कौन है, उसकी पहचान क्या है। उसका अतीत, उसका वर्तमान और उसका भविष्य क्या है; ठीक ऐसी स्थिति एक देश और समाज की होती है जो अपना इतिहास भूल चुका हो। ऐसे देश, ऐसे समाज और ऐसे व्यक्ति समूहों को कहीं भी और किसी भी हाल में धकेला जा सकता है, जो कि इतिहास विदित समाज और देश के साथ संभव नहीं रहेगा।

भारतवर्ष में मुस्लिम इतिहासकारों ने अपने बादशाहों की वीरता एवं उनकी उपलब्धियों को बहुत अतिरंजित तरीके से पेश किया। लेकिन इतिहास के विध्वंस के दुरुपयोग का सिलसिला अंग्रेजों से चला। उन्होंने भारत के इतिहास को इस ढंग से प्रस्तुत करना शुरू किया कि हर भारतीय न केवल अपने अतीत से दूर हो जाए, बल्कि उससे घृणा भी करने लगे। अंग्रेजों ने अपने इतिहास लेखन में उन सभी मान्यताओं, स्थापनाओं एवं आस्थाओं पर प्रहार किया जिन पर भारतीयों को गर्व था और सभी भारतीयों के मन में यह बैठाने की कोशिश की गई कि जो कुछ श्रेष्ठ है, वह सब अंग्रेजों का है। भारतीयों के पास ऐसा कुछ नहीं जिस पर वे गर्व कर सकें। इसी के परिणामस्वरूप मैकाले के उन भारतीयों का निर्माण हो सका जो शक्लों सूरत, रंग एवं खून से तो भारतीय थे लेकिन मानसिक रूप से पूरे अंग्रेज थे। नतीजा यह हुआ कि ऐसे लोगों के मन और मस्तिष्क में न केवल भारतीय इतिहास से वितृष्णा हुई वरन् भारतीयता से भी। सौभाग्य की बात है कि इस लंबे लगभग 200 वर्ष के इतिहास लेखन के दौरान ऐसे इतिहासकार भी हुए जो सही इतिहास लेखन को लेकर अडिग रहे।

भारतीय इतिहास लेखन एवं मार्क्सवाद

पश्चिमी इतिहासकारों के बाद भारतीय इतिहास लेखन में सबसे ज्यादा विध्वंस मार्क्सवादी इतिहासकारों ने किया। इसके पीछे उनकी यह सोच थी कि इतिहास एक सीधी पंक्ति में चलने वाली प्रक्रिया है और वह निम्नलिखित पांच चरणों से गुजरती है-

1) प्रारंभिक साम्यवाद
2) दासत्व काल
3) सामंतवाद
4) पूंजीवाद
5) साम्यवाद
मार्क्सवादी इतिहासकारों को भलीभांति पता है कि यदि समाज को बदलना है और उसे पूरी तरह साम्यवादी मानसिकता पर ले आना है तो उस समाज को उसकी जड़ों से काटना होगा। समाज को उसके गौरवशाली इतिहास एवं परम्परा से दूर करना होगा। इसके लिए साम्यवादी इतिहासकारों ने वही रास्ता अपनाया जिसका उपयोग अंग्रेजों ने किया था। पश्चिमी एवं साम्यवादी इतिहासकारों के लिखे गए इतिहास के अवलोकन से निम्नलिखित तथ्य उभरकर आते हैं-

1.    प्राचीन भारतीय इतिहास को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि उसमें भारतीयों के लिए कुछ भी गर्व करने लायक नहीं है। देश की परम्पराओं, मान्यताओं एवं विश्वास को पूरी तरह चिह्नित करते हुए प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में भारत के गौरवशाली अतीत को पूर्णत: नकार दिया गया। उस काल के शासकों के आचार-व्यवहार, सामाजिक संरचना आदि को लांछित करके ही प्रस्तुत किया गया।
2. मध्यकालीन इतिहास को जब भी प्रस्तुत करने की बात आई, न केवल मुसलमान बादशाहों को अत्यधिक शक्तिशाली के रूप में प्रस्तुत किया गया, बल्कि तत्कालीन हिन्दू राजाओं एवं राज्यों को या तो नकार दिया गया या उन्हें बहुत ही दयनीय स्थिति में दिखाया गया। आगे हम इस तरह के ही इतिहास लेखन की कुछ बानगी देखेंगे।
मध्यकालीन भारत पर लिखी गई इतिहास की पुस्तकों पर नजर डालें तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है जैसे पूरे मध्यकालीन भारत में मुसलमानों के अलावा बड़े हिन्दू राज्य भी थे और हिन्दुस्थान का काफी बड़ा भूभाग ऐसा भी था जो कभी भी मुसलमान शासकों के अधीन नहीं था। दिल्ली सल्तनत के इतिहास की जब बात आती है तो यह बताने की कोशिश नहीं की जाती कि उसके अधीन ज्यादातर सिन्धु और गंगा के मैदानी भाग ही थे। शायद ही कभी जिक्र मिलता है कि गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में बघेल, चंदेल, परमार और यादव वंश राज्य करते थे। दक्षिण भारत में चेर, पांड्य और काकतीयों का राज्य था। इनके पूर्व भारत में सेन वंश राज्य करता था। इसी तरह से जब हम 15वीं शताब्दी के राजनीतिक मानचित्र पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि असम, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान इत्यादि क्षेत्र मुसलमानों के अधीन नहीं थे। बंगाल और कामरूप में गौंड एवं अहोम राजवंश का शासन था। इसी तरह से उड़ीसा में गजपति राजवंश, मेवाड़ में राजपूत एवं राणा राजवंश। मारवाड़ में राठौर तथा दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य था।

इसी तरह से जब हम मुगलकालीन भारतीय मानचित्र पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि विजयनगर साम्राज्य आज के पूरे दक्षिण भारत को समाहित किए हुए था। 18वीं सदी तक आते-आते मुगल साम्राज्य दक्षिण में आगरा, पश्चिम में पटियाला पूर्व में मेरठ और पश्चिम में हरियाणा के जींद तक ही सिमट के रह जाता है। इतिहासकारों ने कभी भी यह बताने की कोशिश नहीं की कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के काफी बड़े हिस्सों में मराठों का साम्राज्य फैला हुआ था। दक्षिण भारत में हैदराबाद के निजाम के अतिरिक्त मैसूर साम्राज्य था।  इस लेख के साथ प्रकाशित मानचित्रों से साफ देखा जा सकता है कि किस तरह से 800 वर्ष के शासन काल में मुसलमानों के द्वारा शासित क्षेत्र को न केवल बढ़ा-चढ़ा के दिखाया गया वरन् तमाम तत्कालीन राज्यों एवं राज्यवशों का जिक्र तक नहीं किया गया है।

‘बुद्धिमान एवं दयालु’ मुसलमान शासक

एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित कक्षा सात एवं कक्षा बारह की पुस्तकों का अवलोकन करने का कष्ट करें तो इतिहासकारों के सामने हिटलर का प्रचार मंत्री गोयबल्स भी नौसिखिया नजर आएगा। ये पुस्तकें झूठ एवं विद्वेष से भरी बातों का पुलिन्दा हैं। मुसलमान राजाओं को दयालु, विद्वान जनता के मसीहा एवं सद्गुणों की खान बताने के लिए न केवल झूठ का सहारा लिया गया है, तथ्यों की पूरी तौर पर अनदेखी की गई है। अलाऊ द्दीन खिलजी को बहुत दयालु एवं कर सुधारक के रूप में दर्शाया गया है। लेकिन पूरी पुस्तक में यह नहीं बताया जाता कि अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा का कत्ल करके गद्दी पर बैठा था। और ये फरमान जारी किए थे कि जो हिंदू जजिया कर न दें, उन्हें या तो मार दिया जाए या गुलाम बना दिया जाएं। फिरोजशाह तुगलक के बारे में फिरोजशाही में काफी विस्तारपूर्वक लिखा है कि कैसे उसने हिन्दुओं को मारा-काटा, मन्दिरों को गिराया, देवताओं की मूर्तियां तोड़ीं और अल्लाह के नाम पर उसने कन्वर्जन कराए। और जिसने भी जजिया कर देने से इनकार किया, उसे मौत के घाट उतार दिया। इन सब तथ्यों का जिक्र न कर एनसीईआरटी के मध्यकालीन इतिहास की पुस्तकें उसे एक विद्वान, रहमदिल एवं सेकुलर सम्राट बताती हैं।

इसी तरह से मुहम्मद बिन तुगलक के द्वारा राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जाने में दिल्ली की पूरी आबादी को जिस तरह के अकाल, भुखमरी, कत्लेआम इत्यादि का सामना करना पड़ा और जिसका जिक्र इब्नेबबूता ने भी किया है, का हवाला एनसीईआरटी की पुस्तकों में देखने को नहीं मिलता है। मुगलकाल के इतिहास पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो देखते हैं कि एनसीईआरटी के इतिहास की पुस्तकों के लेखक झूठ, फरेब एवं डत्शृंखलता की सभी सीमाएं पार कर चुके हैं। लगभग 250 साल के इतिहास में हुआ हिंदुओं के कत्लेआम, हजारों मन्दिरों के ध्वंस और जजिया (कर) का कहीं जिक्र नहीं होता। मुगल बादशाहों को ‘दयालु, सादगीपसन्द इंसाफ पंसद रहमदिल तथा सेकुलर’ राजाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

हिन्दू राज्य एवं राजाओं का मजाक

इसके विपरीत जब हम समकालीन हिन्दू राज्य-राजाओं एवं समाज के बारे में इन पुस्तकों में जो पढ़ते हैं, वह न केवल इतिहास के तथ्यों से काफी दूर हैं, वरन् यह भी साफ झलकता है कि एनसीईआरटी की पुस्तकों के लेखकों को हिन्दू शब्द से ही घृणा है। हिन्दू शासकों का मजाक उड़ाना, उनके शासनकाल को खराब बताना तथा उनकी उपलब्धियों को पूरी तौर पर नकार देना इन लेखकों ने अपना परम कर्तव्य समझा। जैसा कि ऊपर कहा गया एनसीईआरटी की पुस्तकों में यादव, काकतिया, चोल, विजयनगर आदि राज्यों का जिक्र बहुत मुश्किल से ही मिलता है और वह भी द्वेषपूर्ण भाषा में लिखा हुआ।

उदाहरण के लिए पुस्तकों में शिवाजी को मात्र एक छोटे से सामंत राजा के रूप में दर्शाया गया है। कक्षा सात की पुस्तक, पृष्ठ-आठ उल्लेखनीय है। उसमें लिखा गया है, ‘‘एक सामंत का कई गांवों के ऊपर राज था। वे सब मिलाकर किसी भी राज्य का एक छोटा-सा भाग था।’’ शिवाजी की इस पुस्तक में ‘मराठा सेनापति शिवाजी’ लिखा गया है। जबकि तथ्य यह है कि शिवाजी के जीवन काल में ही उनका साम्राज्य महाराष्टÑ, कर्नाटक, मध्य प्रदेश तथा गुजरात के सूरत तक पहुंच गया था। दु:ख की बात तो यह है कि इस तरह की पुस्तकें, जो देश, समाज और  अतीत के साथ खिलवाड़ करती हैं, वे न केवल विद्यालयों में पढ़ाई जा रही हैं, बल्कि समाज भी अपने आपको इससे विमुख किए हुए है।


आवश्यकता इस बात की है कि समाज आगे आए और विकृत इतिहास की जगह एक तथ्यपरक, साक्ष्यपरक एवं राष्ट्रपरक इतिहास लेखन की पहल करे।
( लेखक दिल्ली विरासत अनुसंधान संस्थान के संस्थापक निदेशक हैं)